15 Feb 2007

शक़ का भूमण्डलीकरण

जब राम वनवास के दौरान पंचवटी में निवास कर रहे थे। रावण ने स्वर्णिम मायामृग के वेश में मारीच को भेजा। सीता ने उसका सुनहरा चमड़ा पाने की इच्छा प्रकट की। राम उसका शिकार करने चले। लक्ष्मण से कह गए कि सीता की रक्षा करे एवं उसे छोड़ कर कहीं न जाए। अंत में राम के तीर से मायामृग ने मरते समय राम की आवाज की नकल करते हुए 'हा लक्ष्मण' 'हा लक्ष्मण' पुकारा। राम की दर्दनाक पुकार सुनकर सीता विचलित हो उठी। उसने लक्ष्मण से तुरन्त राम की सहायता के लिए जाने को कहा। लक्ष्मण ने कहा कि "माता राम का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप निश्चिंत रहें, भैया का आदेश है कि मैं आपको छोड़ कहीं न जाऊँ।" लेकिन सीता का मन बिल्कुल नहीं माना। उसे लक्ष्मण पर ही सन्देह हो उठा। उसने लक्ष्मण को तिरष्कृत करते हुए कोसा -- "तुम कितने नीच हो, अपने भाई की संकट में पड़ी चीख सुनकर भी उसकी मदद को नहीं जाते। शायद, तुम्हारे मन में खोट आ गया है। तुम अपने भाई के मर जाने के बाद मुझे लेकर भाग ..... चाहते हो!"

अपनी माँ से कहीं ज्यादा सम्मान करते थे वे सीता का। उसी का इतना गंदा शक़ और कटु मर्म वचन सुनकर उनसे नहीं रहा गया। वे उठ चल दिए, भाई राम की सहायता करने को।
और सीताहरण... रावण मरण ... समग्र रामायण की कथा का कारण बना, यही सीता का शक़। यदि उसने लक्ष्मण पर शक़ न किया होता तो किसी को इतने दुःख न झेलने पड़ते।

शक़ एक बहुत बड़ा विकार है। विशेषकर महिलाओं के एक बड़े अवगुण के रूप में इसका बखान हुआ है। नारी को जगत्-जननी के रूप में पूजनेवाले तुलसीदास ने रामायण में रावण के मुख से कहलवाया, क्योंकि किसी सुपात्र के मुख से वे नारी निन्दा कराकर उसे पाप का भागी नहीं बना सकते थे --

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं।।
संशय अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।।

अर्थात् नारी के हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं -- सन्देह, असत्य, चञ्चलता, माया, भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता।

कुछ नारियाँ बहुत ही शक्की मिज़ाज की होती है। इसका कारण यह है कि कुछ दुर्घटनाओं से वे शारीरिक एवं मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गई होती हैं। यह बात नहीं कि पुरुष सन्देहशील नहीं होते। वे भी सन्देहशील होते हैं। पति-पत्नी के परस्पर सन्देह करने की अनन्तकाल से चलती आई घटनाएँ, एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन गई है।

शक और सन्देह के आधार पर ही पुलिस हजारों निर्दोषों को पकड़ कर मार-पीट कर जीवन भर के लिए अपंग बना देती हैं। झूठे सन्देह के आधार पर पकड़ कर हजारों निर्दोषों को दण्ड दे दिया जाता है। तो सन्देह के लाभ में अदालतों से अनेक दोषी व्यक्ति सरेआम अभियोग से बरी हो छूट जाते हैं।

महाराजा दशरथ ने भी जंगली हिंसक जानवर समझ लेने का सन्देह करके श्रवणकुमार पर तीर चलाकर उसे मार डाला था, जिसका दण्ड श्रवण कुमार के माता-पिता के शाप से उन्हें जीवन भर भुगतना पड़ा। पुत्र वियोग सहकर मरे।

शक़ बड़ा ही घृणित अवगुण है। हर किसी पर हो जाता है। इसके कारण हैं विश्वास का अभाव एवं भय। आज के संसार में जब हर कहीं भय का वातावरण व्याप्त है। हर इन्सान किसी न किसी अवगुण से जड़ित है। हर कहीं अशान्ति है। किसी इन्सान का दूसरे इन्सान पर भरोसा नहीं रहा। यहाँ तक कि व्यक्ति को आज अपने आप पर भी सन्देह होने लगा है। अपने मन पर, अपनी शक्ति पर, अपनी बुद्धि पर भी इन्सान का विश्वास नहीं रहा। "पता नहीं मैं यह कार्य सफल कर सकूँगा या नहीं।"

आज शक़ का भूमण्डीकरण हो गया है। क्योंकि चारों ओर अन्याय, अत्याचार, पापाचार फैलने से आतंक व्याप्त है। चोरी, डकैती, बलात्कार आदि आए दिन होते रहते हैं। ट्रांजिस्टर बम, सूटकेश, घड़ी आदि में छुपे बम विस्फोट हो चुके हैं। सरकार द्वारा भी घोषणा की जाती है कि किसी लावारिस पड़ी चीज को न छुएँ -- पता नहीं किस वस्तु में बम फिट हो।

जनता का नेताओं पर विश्वास नहीं कि वे सचमुच जनता के हित में कार्य करेंगे। हर एक मंत्री या राजनेता के भ्रष्ट होने का सन्देह कर रही है जनता। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अनेक नेताओं के भ्रष्टाचार के मामले पकड़े गए हैं। आज किसी नेता का भी जनता पर भरोसा नहीं रहा। पता नहीं यह जनता उसे चाहती है, उसे जिताएगी या नहीं। पता नहीं लोग कब रुख बदल कर किसी अन्य को अपना वोट दे जाएँ।

प्रबन्धकों को श्रमिक संघों को एकत्र होते देखकर सन्देह होता है कि पता नहीं ये कहीं हड़ताल आदि की योजना तो नहीं बना रहे। श्रमिकों को प्रबंधन पर सन्देह होता है कि कहीं ये तालाबंदी, छँटनी, उनके हित की हानि की योजना तो नहीं बना रहे। शंकालु मनों में हमेशा दरार पड़ी रहती है। नेताओं में परस्पर सन्देह व अविश्वास से बड़े बड़े संगठन भी टूट जाते हैं।
मंदिर के द्वार पर जूते खोलकर जाते वक्त भी हमें सन्देह होता है कि कहीं कोई चुरा कर न ले जाए।

किसी के प्रति जरूरत से ज्यादा दया दिखा दें, तो वही व्यक्ति दयालु पर सन्देह करने लगता है। किसी भिखारी को लोग पाँच पैसे देते हैं। यदि कोई उसे सौ का नोट पकड़ा दे तो वह यही सन्देह करेगा कि कहीं यह नोट जाली तो नहीं, कहीं वह दाता पागल तो नहीं। जनता की भलाई करनेवाले, अच्छे व्यक्ति की नीयत पर भी सन्देह होने लगता है। प्रेम के अतिरेक में अद्भुत त्याग करनेवाले प्रेमी पर उसकी प्रेमिका ही सन्देह कर बैठती है, उसे गलत समझती है, सारे रिश्ते तोड़ कर खुद तो विरह की आग में जलती है और सबको जलाती है।

कहीं आपने कोई नई बात कही, प्रचलित परम्परा के विरुद्ध, लीक से हटकर कुछ नया करने का प्रयास किया, नए आविष्कार कर जनहित का साहस किया, तो लोग सन्देह कर बैठते हैं -- कहीं इसमें कोई भयंकर चाल तो नहीं।

दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँक कर पीता है। सन्देह होता है, डर लगता है कि कहीं इससे भी मुँह जल न जाए।

जो लोग डरपोक होते हैं उन्हें ही सन्देह ज्यादा होता है। कमजोरी भी व्यक्ति को सन्देहशील, चिड़चिड़ा, शंकालु व अति आशंकित बना देती है। कहीं मन्द प्रकाश में रस्सी पड़ी देखकर भी उसे साँप समझकर आशंकित हो घबरा जाता है। आशंकित मन व्याकुल होकर अपनों को भी परे कर लेता है।

जब किसी व्यक्ति पर संकट के बादल मण्डराने लगते हैं, उसे कहीं से धोखा मिलता है, वह टूट पड़ता है, तो उसे हर किसी पर सन्देह होने लगता है। अपने रक्षक पर भी सन्देह होने लगता है। आज के जमाने में किस पर क्या भरोसा? भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के अपने अंगरक्षकों ने ही उनको गोलियों से भून दिया था। फूल माला पहनाने के बहाने एक नारी ने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी एवं स्वयं को आत्मघाती बम से उड़ा डाला था। अतः आज विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा हेतु हजारों कमाण्डो लगाए जाते हैं और करोड़ों रुपये खर्च होते हैं।

किसी बच्चे की चाकलेट में धूल या गन्दगी लगी देखकर उसकी माँ उसे रोककर चाकलेट साफ करके देना चाहती है, तो भी वह रो-चिल्लाकर विरोध करता है, उसे सन्देह होता है कहीं माँ चॉकलेट छीन तो नहीं लेगी। कोई कुत्ता कोई सूखी हड्डी लेकर भाग रहा होता है और उसे पानी में दूसरे कुत्ते की छाया भी दिख जाए तो सन्देह हो उठता है कि कहीं वह छीन न ले।

समग्र संसार विश्वास के आधार पर ही टिका है। सन्देह के कारण समग्र संसार का विनाश हो सकता है। यदि दो देशों को एक-दूसरे पर सन्देह गहराने लगे, अपनी असुरक्षा का संकट का सन्देह हो तो सामान्य सी घटना पर ही युद्ध छिड़ सकता है। और फिर यह विश्वयुद्ध में भी बदल सकता है।

सन्देहशील व्यक्ति अपना ही नहीं, अनेकों का नुकसान कर बैठता है। यदि मिसाइल का प्रचालन करनेवाले व्यक्ति की आँखें अचानक कमजोर हों जाएँ, उसे लाल व हरे बटन के हरे व लाल होने का सन्देह होने लगे तो उसकी अंगुली की एक गलत चाल समग्र विश्व को ध्वंश कर सकती है।

शंकालु व्यक्ति कहीं कोई भी कार्य सफल नहीं कर पाता। उसका भगवान पर से भी विश्वास उठ जाता है और भगवान तो विश्वास का ही दूसरा नाम है। अत्यन्त भाव-विह्वल भक्ति, प्रेम एवं आस्था से ही किसी के माध्यम से प्रकट होता है और अन्तर्मन को शान्ति देता है। उसके संकटों का निवारण करता है। शंकालु व्यक्ति की तो एकाग्रता ही नष्ट हो जाती है। वह ईश्वर की ओर ध्यान केन्द्रित ही नहीं कर पाता, शक्ति के अभाव में टूट जाता है। टूट कर बिखर जाता है। और बिखर कर दूसरों के पैरों के नीचे आ, उन्हें भी फिसला कर गिरा देता है।
जब किसी व्यक्ति या जाति या संगठन को हराना होता है, उसका नुकसान करना होता है, उस पर काबू पाना होता है, तो उस स्थान की बिजली पानी की लाइनें काट दी जाती है। बिजली और पानी आज के संसार में विशेषकर शहरी इलाकों में प्राण-स्वरूप हैं। इनके अभाव में हा-हाकार मच जाता है।

इसी प्रकार व्यक्ति के मन में उसके विश्वास व आस्था के आधार को दुश्मन सबसे पहले काटने का प्रयास करते हैं। उसके अपनों पर, उसकी शक्ति के स्रोत पर ही सन्देह पैदा करके बिछुड़ा देते हैं। और जब वह अशक्त हो, टूट कर अधमरा हो उठता है, तो उसपर काबू कर लेते हैं।

मुसलमानों ने सर्वप्रथम इस देश के मन्दिरों पर आक्रमण कर मूर्तियों को तोड़ कर इस देश की जनता की शक्ति के स्रोत ईश्वर पर से उनकी आस्था तोड़कर उन्हें अशक्त बना डाला था। तभी वे इस देश पर राज कर सके। आज भी अनेक विधर्मी लोग धर्मान्तरण कराकर इस देश की भोलीभाली जनता को अन्ततः राष्ट्रविरोधी कार्यों में उत्प्रेरित कर दे रहे हैं।

वैसे सन्देह भी जरूरी तो है ही, क्योंकि सन्देह के आधार पर ही दोषी की तलाश की जाती है। किन्तु केवल सन्देह के आधार पर कोई गलत कार्यवाही न करके, कोई पक्का प्रमाण पाने के बाद ही कार्यवाही करनी चाहिए।

एक कहानी है -- एक जंगल में एक यात्री थककर अनजाने में कल्पवृक्ष के नीचे बैठ गया। जैसे ही उसने सोचा कि पानी मिले, तुरंत पानी सामने आ गया। फिर उसने जैसे ही भोजन की इच्छा की, तो तुरंत भोजन सामने आ गया। अचानक उसे डर कर सोचा कहीं शेर आ जाए और मुझे खा जाए तो। तुरंत शेर आ उसे मार कर खा गया।

वैसे ही कभी कभी कैन्सर की आशंका से पीड़ित व्यक्ति को सचमुच कैन्सर हो जाता है। दृढ़ विश्वास से गोबर लेप कर भी कोढ़ी की रोगमुक्ति होने का दृष्टांत है। अतः भगवान की वाणी है कभी आशंकित मन से अशुभ सोचना तक नहीं चाहिए। व्यापारिक संगठनों के लिए उत्पादों की गुणवत्ता, लाभकारिता पर ग्राहकों का विश्वास, उनकी साख ही सबसे बड़ी पूँजी होती है।
आज इन्सान को भगवान पर भी विश्वास नहीं रहा। उसे हमेशा सन्देह बना रहता है कि अमुक देवता की पत्थर की मूर्ति क्या उसके संकट का निवारण कर पाएगी? यदि भगवान सचमुच में प्रकट हो जायें तो भी लोग कदापि उनपर विश्वास नहीं करेंगे। सन्देह करेंगे कि यह कोई पाखण्डी या पागल ही है। ज्यादा वर्षा से बाढ़ आने का सन्देह होने लगता है तो ज्यादा गर्मी से अकाल की आशंका होने लगती है।

अतः सर्वोपरि व्यक्ति को अपने आप पर से, अपनी क्षमता पर से, अपनी शक्ति पर से, और अपने भाग्य पर से, तथा भाग्याधिपति ईश्वर पर से विश्वास तिल मात्र भी कदापि नहीं तोड़ना चाहिए। यदि व्यक्ति ईश्वर पर ही सन्देह करने लगेगा, तो वह स्वयं ही नहीं, समग्र संसार को भी ले डूबेगा। व्यक्ति को हमेशा यह भरोसा रखना चाहिए कि ईश्वर की छत्रछाया सदा मेरे ऊपर है। वह कभी उसकी कोई हानि नहीं होने देगा। सदा ईश्वर पर सम्पूर्ण समर्पण भाव रखना चाहिए। हे प्रभु! मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, तेरा बच्चा हूँ, तेरी शरण में हूँ। अब तू चाहे मार, चाहे बचा। समग्र सृष्टि को अध्यात्म में एक नाटक माना गया है, जो पूर्व-निश्चित है, उसे कोई नहीं टाल सकता। ईश्वर की इच्छा के बिना कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। यह ज्ञान हमें आश्वस्त कर शान्ति व असीम शक्ति देता है।

संकटकाल में, दुर्दिनों में यही ईश्वर भक्ति एवं विश्वास ही हमें उबार सकते हैं। कम से कम एक सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति आस्थापूर्ण सर्वसम्बन्ध सदा दृढ़ता से कायम रखना चाहिए। तभी व्यक्ति के संकट मिटेंगे और उसके अच्छे दिन शीघ्र लौटेंगे।

2 comments:

राकेश जैन-- said...

परम्परा मे सही चीजे डुन्ड्कर साबित करने के अलावा दुसरो कि य नयी चीजो को स्वीकार करने की दश्ती हे आपके पास .्नारीयो मे शक क आधिक्य सम्बन्धी उदाहरन सन्कीर्न्ता का परीचायक हे.आपके विचार ओर मेरी असहमति पीडीयो मे सोच के अन्तर को दर्शाती हे .

हरिराम said...

राकेश जी, आपके विचार से मैं भी पूर्ण सहमत हूँ। "यत्र नार्येस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता" का अनुसरण करते हुए सदा उनकी अर्चना करता हूँ। कृपया ध्यान से देखें - तुलसीदास जी ने भी नारी-निन्दा रावण के मुँह से ही करवाई है "संशय अनृत... अशौच अदाया।।"