श्रम शर्म नहीं...
(श्रमिक दिवस, एक मई,2007 पर विशेष)
श्रम और शर्म ये दोनों शब्द आपस में कुछ मिलते-जुलते लगते हैं। कुछ लोगों द्वारा अक्सर गलती से श्रम को शर्म और शर्म को श्रम लिख दिया जाता है। विशेषकर कम्प्यूटर में टंकण करते वक्त यह गलती हो जाती है। इसका कारण है इसके टंकण-क्रम की व्युत्पत्ति :-
श्रम = श+्+र+म
शर्म = श+र+्+म
बस सिर्फ एक हलन्त आगे-पीछे उलट-पलट लग जाए तो दोनों एक-दूसरे का रूप बदल लेते हैं।
किन्तु दोनों के अर्थ में बड़ा भारी अन्तर है। श्रम अर्थात् परिश्रम, मेहनत, मजदूरी और शर्म अर्थात् लज्जा(Shame)।
परन्तु आजकल इन दोनों के प्रयोग तथा व्यवहार के बीच भी उलट-पुलट, मिलावट और निकटता दिखाई देने लगी है।लोगों को परिश्रम करने में शर्म महसूस होती है। किसी पार्टी में देखते हैं कि लोग जूठे गिलास व थाली जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं, उन्हें उठाकर सही कूड़े-दान या जूठे बर्तनों के स्थान में रखने को छोटा काम समझकर उन्हें शर्म महसूस होती है। अपनी हैसियत से, अपने पद से नीचे का काम करने में लोगों को लज्जा आती है। लोग बेकार बैठे रहेंगे, इधर-उधर बतियाते रहेंगे, लेकिन लम्बित पड़े काम नहीं सलटायेंगे। यह बड़ी हानिकारक प्रवृत्ति है। व्यक्ति को परिश्रम करने में कभी शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए। बल्कि असदाचरण, व्याभिचार, भ्रष्टाचार, अधर्म या पाप करने में शर्म का अनुभव होना चाहिए।
जरूरत से ज्यादा मिलना हानिकारक है :-
एक सेठ जी अपना मकान-निर्माण करवा रहे थे। कई कारीगर और मजदूर काम कर रहे थे। एक मजदूर बहुत अच्छा काम कर रहा था। वह दूसरे मजदूरों की तुलना में तेजी से और ज्यादा काम कर रहा था। शाम को सेठ जी ने उस पर खुश होकर उसे उसकी 100 रुपये की दैनिक की मजदूरी के अलावा बीस रुपये और ज्यादा की मजदूरी दे दी। उन्होंने यह सोचा था पुरस्कार स्वरूप ज्यादा मजदूरी पाने पर वह अगले दिन और अच्छा काम करेगा। किन्तु घोर आश्चर्य! दूसरे दिन सेठ जी प्रतीक्षा करते रहे। किन्तु वह मजदूर काम करने ही नहीं आया। सेठ जी ने सोचा शायद किसी समस्या में पड़ गया होगा, थोड़ी देर से आएगा। काफी देर प्रतीक्षा के बाद भी वह नहीं आया। उसके न आने से सीमेण्ट-गारा मिश्रण आदि काम अटक गए। अन्य कारीगर और मिस्त्री भी बेकार बैठे रह गए। सेठ ने उसकी तलाश में उसके निवास पर दूसरे आदमी को बुलाने भेजा। किन्तु उसने लौटकर बताया कि वह मजदूर तो रात को ज्यादा शराब पीकर अब तक नशे में धुत्त होकर सोये पड़ा है। उसकी बीबी ने बताया कि वह नशे में बक रहा था-- "आज मजदूरी में बीस रुपये ज्यादा मिल गए हैं, आज पूरी बोतल भर शराब पीकर आराम करूँगा। आज काम करने नहीं जाऊँगा।"
उसकी प्रतीक्षा इतनी देर तक करते रहने से दूसरा कोई मजदूर भी नहीं मिला सेठ जी को। अन्य सारे मजदूर दूसरे काम करने निकल पड़े थे। उनका भारी नुकसान हुआ। उसके काम पर न आने के कारण गारा-ईंट आपूर्ति में बाधा पड़ी और दोनों मिस्त्री कारीगर भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाए। जितना काम उस दिन होना चाहिए था, उसका एक-चौथाई ही हो पाया काफी मुश्किल से। फिर भी कारीगरों को मजदूरी तो पूरी ही देनी पड़ी सेठ जी को। उनका लगभग 500 रुपये का नुकसान हो गया उस दिन।
सेठ जी को अपने दया की दुर्बुद्धि पर भारी पछतावा हुआ। उन्हें शिक्षा मिली कि जरूरत से ज्यादा मजदूरी देकर उन्होंने बड़ा पाप ही किया है। कुपात्र को दान देना महापाप होता है। वह धन का सदुपयोग करना नहीं जानता, इसलिए उसे ज्यादा मजदूरी देने वजाए उसकी मजदूरी से कुछ रुपये काट कर बकाया रख लेते तो वह मजदूर जरूर काम पर आता अपनी शेष मजदूरी लेने के लिए। तब से सेठ जी ने कारीगरों और मजदूरों की मजदूरी का कुछ अंश काट कर अपने पास रखकर जमा करना शुरू कर दिया और कहा कि मकान निर्माण का काम पूरा हो जाने के बाद ही आपकी कुल जमा मजदूरी और अपनी ओर से कुछ पुरस्कार स्वरूप रुपये मिलाकर दूँगा।
इसी प्रकार देखा जाता है कि आज लोग परिश्रम करने से जी चुराते हैं। वे लोग सिर्फ अपना ही नुकसान नहीं करते, बल्कि सम्पूर्ण समाज का भारी नुकसान करते हैं। राष्ट्रीय आय को बड़ा भारी नुकसान पहुँचाते हैं।
दूसरी ओर देखा जाता है कि कुछ बुजुर्ग लोग गाँधीवादी विचारधारा के होते हैं। वे रोजाना सुबह जल्दी उठकर सड़कों पर झाड़ू-बुहारी करते हैं। सड़क के बीच पड़े कूड़ा-करकट या कंकड़-पत्थर आदि उठाकर गली को मोड़ पर रखे कूड़ेदान में फेंक कर आते हैं। किन्तु ऐसे लोगों को युवावर्ग घृणा की नजरों से देखता है। उनका अपमान करता है। इसके विपरीत वे युवावर्ग अपने घर के आसपास भी सफाई करने की वजाए और ज्यादा कूड़ा फैलाते हैं। गन्दगी फैलती है, मच्छर, कीड़े-मकोड़ बढ़ते हैं और बीमारियाँ फैलती है।
एक घटना याद आ गई। एक पार्क में कुछ लड़कियाँ बैठी बतिया रहीं थी और मूँगफली खा रही थी। वे लड़कियाँ वहीं छिलके फेंके दे रही थी। उनमें सुनीता नामक एक लड़की छिलके मूँगफली के खाली ठोंगे में रखने लगी, सोचा वापस लौटते समय कूड़ेदान में फेंक देगी। किन्तु यह देखकर दूसरी लड़कियों ने उसका मजाक उड़ाया- "चली हो गाँधी जी की नानी बनने। फेंक यहीं। यह मेहतर का काम है, क्यों हमारी इज्जत बिगाड़ रही हो।"
अगली शाम को वे लड़कियाँ फिर पार्क में आईं और एक जगह घास पर बैठकर बतियाने लगीं। अचानक वे लड़कियाँ चीखकर उठी और छटपटाती हुई भागीं, अपने कपड़े झाड़ने लगी। चींटियों ने उनके शरीर पर चढ़कर कपड़ों के अन्दर घुसकर जहाँ-तहाँ काट-खाया था। कपड़े उतार कर झाड़ने के लिए उन्हें कहीं सही जगह भी नहीं मिली। पार्क में कुछ झाड़ियों के पीछे जाकर उन्हें जैसे-तैसे रो-रा कर चींटियाँ झाड़नी पड़ीं। दंश के दर्द से सिसकारते हुए, पछताते हुए वे सुनीता से बोलीं-- "कल तुम ठीक ही कर रही थी। हमने तुम्हें कूड़ा उठाकर कूड़ेदान में डालने से रोक दिया था। सचमुच हम जैसे लोगों ने, मूँगफलियाँ खाकर छिलके तथा कुछ खराब दाने यहीं फेंक दिए होंगे, जिनमें चींटियाँ लग गईं। हमें अच्छा दण्ड मिला। अब आगे से कभी भी जहाँ-तहाँ कूड़ा नहीं फेंकेंगे।"
एक और घटना है-- ग्लोबल वार्मिङ्ग बढ़ते देखकर एक अधिकारी ने सोचा कि सड़क किनारे की खाली जमीन में एक पीपल का पेड़ लगा दूँ तो ठण्डी छाया मिलेगी और शुद्ध ऑक्सीजन मिलने से प्रदूषण भी कम होगा। इसके लिए एक गड्ढा खोदने के लिए एक मजदूर से कहा। मजदूर ने इस काम के लिए पूरे 100 रुपये की मजदूरी मांगी। अधिकारी ने कहा कि गड्ढा खोदने में तो सिर्फ एक घण्टा भर लगेगा। 100 रुपये मजदूरी तो पूरे आठ घण्टे के दिन भर के काम की होती है। लेकिन कोई राजी नहीं हुआ। काफी देर तक प्रतीक्षा के बावजूद उस दिन कई मजदूर बिना कोई काम पाए वापस चले गए, लेकिन कुछ कम पैसे लेकर वह छोटा गड्ढा तक खोदने को राजी नहीं हुए। मजदूरों के सरदार ने उलटे सबको पट्टी पढ़ाई-- "भले ही बेकार रहें, भले ही भूखे रहें, लेकिन कम मजदूरी लेकर काम नहीं करेंगे।"
इस प्रकार देखा जाता है कि आजकल लोग श्रम और परिश्रम करने से कतराते हैं, अधिक आराम करना पसन्द करते हैं। सोचते हैं आराम करने से भूख नहीं लगेगी। लेकिन चाहे आप कुछ करो या न करो, चाहे सोये रहो, आपका पेट तो अपना काम अनवरत करता है। भूख तो लगेगी ही। यदि समय बेकार खोया, श्रम नहीं किया तो पेट को आहार कहाँ से मिलेगा। लोग अधिक आराम करके अपनी तोंद फुलाते हैं, मोटे होते हैं, बीमार पड़ते हैं। और अन्त में मोटापा घटाने व स्वास्थ्य रक्षा के लिए लाखों रुपये की दवाई खानी पड़ती है या दौड़ना या अन्य कठिन व्यायाम करना पड़ता है।
एक केन्द्रीय मंत्रालय के कार्यालय की एक घटना है। कार्यालय में बाहर से कोई एक अतिथि अधिकारी आए। वे सचिव महोदय से मिलने के लिए प्रतीक्षारत बैठे रहे। सचिव जी का चपरासी किसी काम से कुछ देर के लिए बाहर गया था। उनको प्यास लगी। उन्होंने पता लगाया कि पीने का पानी कहाँ है और वहाँ रखे जग से गिलास में स्वयं पानी निकालकर पीने लगे। इतने में चपरासी लौटा। उनके स्वयं पानी लेकर पीता देखकर क्रोधित हो गया और बोला-- "महोदय, आप क्यों मुझ गरीब के पेट पर लात मार रहे हैं। यदि आप जैसे अतिथि स्वयं पानी लेकर पी लेंगे, तो मेरी सेवा की क्या जरूरत रहेगी। मेरी तो नौकरी ही चली जाएगी। यह मेरा काम है। मैं अपना काम का अधिकार किसी दूसरे को नहीं दूँगा। मेरा काम किसी और को नहीं करने दूँगा।" उसने उनके हाथ से पानी का गिलास छीन लिया। उस पानी को फेंककर बड़े सलीके के साथ कूलर से ठण्डा पानी लाकर पीने को दिया। अधिकारी महोदय उस चपरासी का कर्म-प्रेम और कार्यालय की ऐसी कार्य-संस्कृति देखकर अभिभूत हो गए। कहा- सचमुच जहाँ अपने काम का ऐसा आदर हो, वह देश जरूर प्रगति करेगा।
प्रभु रामचन्द्र के राज्याभिषेक की कथा है। लक्ष्मण, शत्रुघ्न से लेकर सुग्रीव तक सब ने एक एक काम का दायित्व सम्भाल लिया था। हनुमान जी के लिए कोई काम नहीं बचा। वे अत्यन्त दुःखी हो गए। भगवान राम से शिकायत की। भगवान राम ने उन्हें दायित्व सौंपा कि वे प्रातःकाल जल्दी उठकर सिर्फ चुटकी बजाएँ। उनकी चुटकी की आवाज सुनकर ही वे सोकर उठेंगे। सुग्रीव आदि सभी सेवक हनुमान जी का मजाक उड़ाने लगे कि उनको सिर्फ चुटकी बजाने का छोटा-सा काम मिला है। जबकि उन्हें बड़े दायित्व। बड़े शर्म की बात है।
हनुमान जी भी दुःखित होकर रूठ गए। उन्होंने अगले दिन प्रातःकाल चुटकी नहीं बजाई। भगवान राम सोकर ही नहीं उठे। सब लोग उन्हें जगाते-जगाते थक गए। सारे उपाय करके हार गए। पूरा एक प्रहर बीत गया। राज्याभिषेक के मुहूर्त के बीत जाने की आशंका हो चली। यह देख कर गुरु वशिष्ठ जी बुलाया गया। वे सारी बात समझ गए। उन्होंने रूठे हनुमान जी को मनाया और चुटकी बजाने की विनती की। जब हनुमान जी ने चुटकी बजाई तभी भगवान राम जागे।
इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। हर काम का अपना-अलग महत्व है तथा हर कर्मचारी का काम विशेष है। कोई किसी का विकल्प नहीं बन सकता। अतः कर्मक्षेत्र में चाहे कोई चमार हो, चाहे कोई जमादार हो, या चाहे कोई मंत्री हो, सबका अपना अपना विशेष महत्व है।
आजकल भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के दौर में अनेकानेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश में पैर जमा चुकी हैं। सड़कें तक मशीनों से, डोजरों से बनने लगी है... कम्प्यूटर के माध्यम से अनेक लोगों का काम एक आदमी कर लेता है। नमक से लेकर चाय जैसी छोटी मोटी रोजमर्रा की वस्तुएँ भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा बनाई जाती हैं और बेची जाती हैं। गांधी जी की स्वराज, स्वदेशी वस्तुओं के ही उपयोग करने, चरखा चलाने, हर हाथ को काम... हर पेट को रोटी... की नीति गायब होती जा रही है। देश में बेकारी बढ़ रही है। बेकार व भूखे लोग नक्सलवाद और माओवाद तथा आतंकवाद का शिकार बन भयंकर समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं। धनी और ज्यादा धनी होते जा रहे हैं, गरीब और ज्यादा गरीब। जनसंख्या में भारी वृद्धि हो रही है। किन्तु गुणवत्ता(quality) की और गुणवान लोगों की कमी होती जा रही है।
ऐसी स्थिति में प्राचीन वैदिक तथा पौराणिक सूत्रों तथा चाणक्य के अर्थशास्त्र में वर्णित श्रम नीति-सिद्धान्तों के आधार पर आधुनिक नवीन श्रम-नीति के नए आयामों की खोज करके उन्हें लागू करना आवश्यक हो गया है। तभी मानव सभ्यता को विनाश की ओर बढ़ने से बचा कर नए सुखमय संसार की रचना सम्भव हो पाएगी।