एक विचारपति एक बार एक बरगद के पेड़ के नीचे लेटे हुए विचार कर रहे थे। उन्होंने सोचा-"सचमुच, भगवान बड़ा अन्यायी है। उसने कितनी बड़ी भूल की है। इतने विशाल बरगद के पेड़ को इतने नन्हें-नन्हें फल दिए, और उस बेचारी कुम्हड़े की बेल, जो अपने पाँव पर खड़ी भी नहीं हो पाती, उसको इतने बड़े फल दिए हैं। भगवान की यह बड़ी भूल है। उन्हें इसके लिए कड़ा दंड दिया जाना चाहिए।" भगवान को कैसे दंड दें? सोचा-- उनकी मूर्ति को उलटा लटकाकर कोड़ों से पिटाई की जाए?
इसी बीच बरगद का एक फल टूट कर विचारपति महोदय की नाक पर पड़ा। चौंक पड़े। फिर सोचा -- "अरे! यदि बरगद पर कुम्हड़े जैसे बड़े फल लगे होते तो आज मेरी नाक का क्या हाल होता? नाक तो नाक पूरा चेहरा ही पिचक गया होता। और मैं अभी सीधा भगवान के पास पहुँच गया होता।" उन्होंने तुरंत स्वीकार किया कि वास्तव में भगवान जो करता है, वह सदा ठीक ही करता है। उसका न्याय-तंत्र बिल्कुल उत्तम है।
क्या पाप है, क्या पुण्य है? क्या न्याय है, क्या अन्याय है? क्या धर्म है, क्या अधर्म? इन प्रश्नों पर विचार करते-करते हमारी बुद्धि दर्द करने लगती है। एक विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने से स्पष्ट होता है कि पाप और पुण्य, सही और गलत, धर्म और अधर्म का निर्णय देश, काल और पात्र के अनुसार अलग-अलग होता है। कुछ बातों का उदारहण लें --
अधिकांश सभ्य लोग चावल को उबालने के बाद माँड़ फेंक देते हैं और भात खाते हैं। कुछ आदिवासी माँड पी लेते हैं और भात फेंक देते हैं। शहरी लोग उन्हें मूर्ख समझते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो चावल के अधिकांश विटामिन-खाद्यसार माँड में ही रह जाते हैं।
हिन्दू गाय को माता समान मानकर उसकी पूजा करना ही धर्म मानते हैं तो मुसलमान और ईसाई गोमांस खाना अपना उचित समझते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मानव का हित करनेवाली गाय को माँ के समान पूजा करना धार्मिक भावना ही नहीं कृतज्ञता की भी अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर इसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुसलमान और ईसाइयों के लिए गोमांस सर्वोत्तम और शुद्ध मांस है, अन्य किसी पशु का मांस इतना शुद्ध नहीं होता। क्योंकि गाय कोई शुद्ध शाकाहारी होती है, कोई अभक्ष्य आहार नहीं करती।
पाप-पुण्य का निर्णय कभी कभी अत्यंत दुष्कर कार्य हो जाता है। जिसे हम पुण्य या धर्म-कार्य समझते हैं, वही वास्तव में पाप बन जाता है। एक उदाहरण प्रस्तुत हैं :
एक सेठ जी ने एक बार एक गाय दान में दी। पुण्य कमाना चाहा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद उनका संपूर्ण कारोबार खत्म हो गया। कंगाल बन गए। उन्होंने बड़े-बड़े ज्योतिषियों, पंडितों से इसका कारण पूछा। एक ने ध्यान कर बताया -- 'यह आपके गोदान का फल है।' सेठ जी हैरान! कहा -- 'पर महाराज! गोदान तो परम पुण्य कार्य है।' ज्ञानी व्यक्ति ने कहा कि -- 'आपने जिस ब्राह्मण को गाय दान की थी, वह अपनी गाय को पाल नहीं सका, उसने वह गाय कसाई को बेच दी। जिसने उसे मार डाला। यह कुपात्र को दान देने के पाप का फल है।'
सेठ जी ने कहा -- 'परंतु महाराज! इसमें मेरा क्या कसूर? मुझे क्या मालूम था कि वह ऐसा करेगा।' ज्ञानी ने उत्तर दिया -- 'आप जान बूझकर जहर खायें या गलती से आपके भोजन में जहर मिला हो, शरीर पर दोनों का समान प्रभाव ही पड़ेगा।'
जाने-अनजाने हमसे अनेक गलतियाँ होतीं हैं। अतः हमें दूसरों की भूलें न निकाल कर अपना आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। परंतु अन्याय को होते देख चुप रहना भी एक प्रकार की गलती है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि अन्याय को सहना अन्याय करने से भी बड़ा अपराध है।
15 Feb 2007
भगवान की भूल...
Posted by हरिराम at 12:55
Labels: शिक्षाप्रद कथा
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