एक बार स्वामी ज्ञानानन्द जी एक वेद-विद्यापीठ के निर्माणार्थ दान में धनराशि संग्रह करने निकले। उन्होंने बहुत सुना था कि सेठ दानमल बड़े दानी हैं। एक दिन शाम को उन्होंने सेठ दानमल के भवन में प्रवेश किया। द्वारपाल ने उन्हें आदर के साथ बैठाया और प्रतीक्षा करने को कहा। इतने में बिजली चली गई। सेठ जी का नौकर मोमबत्ती जलाने लगा। उसने माचिस की एक तीली जलाई, पर वह बुझ गई। फिर उसने दूसरी तीली जलाई, वह भी बुझ गई। उसने फिर तीसरी तीली का प्रयोग कर मोमबत्ती जलाकर उजाला किया। माचिस की तीलियों की बरबादी देखकर सेठ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। नौकर पर अंधाधुंध गालियों की बौछार करने लगे।
स्वामी जी यह सब सुनकर अत्यंत निराश हुए। सोचा कि इतना कंजूस-मक्खीचूस व्यक्ति क्या दान देगा। यह सोचकर चुपचाप वहाँ से उठकर वापस आश्रम चले आए। किंतु दूसरे दिन सवेरे उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब सेठ दानमल जी का दीवान एक लिफाफा लिए सेवा में हाजिर था। दीवान ने कहा कि सेठजी के यहाँ से कल बिना बताये उनके चले आने पर, वे काफी दुःखी हुए। उन्होंने दान में यह चेक भिजवाया है। स्वामी जी ने लिफाफा खोलकर देखा कि उसमें एक लाख रुपये का एक चैक है और एक कागज की पर्ची, जिस पर मात्र एक पंक्ति लिखी हुई थी -"बूँद-बूँद मिलकर ही सागर भरता है।"
स्वामी जी को सेठ जी की समृद्धि और संपन्नता का राज समझ में आ गया। वे समझ गए कि मितव्यतिता और कंजूसी में कितना अंतर है।
सच ही है कि लक्ष्मी उसी के पास रहती है, जो उसे सम्हाल कर रखना जानता है। कहा गया है --
क्षणस्य कणस्य चैव विद्यामर्थम् चिन्तयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम्।।
अर्थात् हर क्षण-क्षण में विद्या और हर कण-कण में धन है सदा यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि एक कण-कण नष्ट हो गया तो धन कहाँ बचेगा? यदि एक-एक क्षण भी नष्ट हुआ तो विद्या नहीं रहेगी?
कई सफल कम्पनियों में वित्त विभाग एक-एक पैसे के खर्च पर अत्यंत कठोरता के साथ आपत्तियाँ प्रकट करता है। आंतरिक अंकेक्षण एवं सतर्कता विभाग अत्यंत मुस्तैदी से लागत नियंत्रण हेतु कमर कसे प्रस्तुत रहते हैं। दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों, खेलों के आयोजनों, जनकल्याण व समाज-विकास कार्यों में करोड़ों रुपये प्रतिवर्ष अन्धाधुन्ध खर्च कर दिए जाते हैं, जो झूठी मान-शान का दिखावा मात्र लगते हैं और कर्मचारी-वर्ग की आँखों की किरकिरी बनते हैं, जिनके वेतन आदि में बढ़ोतरी व सामान्य सुविधा देने आदि के मामले में अनेक वर्षों तक संघर्ष, हड़ताल आदि के बिना प्रबंधन टस-से-मस नहीं होता।
आज कंपनी विपरीत परिस्थितियों में भी लाभ कमा रही है, यह हम सभी के कठोर परिश्रम और हर स्तर पर बर्बादी रोकने के प्रयासों का ही परिणाम है। चाहे वह समय की बर्बादी हो या धन की। बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता। "श्रमेव जयते" -- का नारा एक क्षण भी खोये बिना सदा कुछ कुछ न कार्य करते रहने से ही सफल हो सकता है। संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंध का लक्ष्य तभी सफल हो सकता है, जबकि हरेक कर्मचारी सदा सतर्क रहे और हर स्तर पर बर्बादी और सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए तत्पर रहे। चाहे कोई कितने ही बड़े ओहदे वाला क्यों न हो। कंपनी के धन के दुरुपयोग की घटना को तुरंत संबंधित प्राधिकारियों की जानकारी में लाना चाहिए।
संपन्नता और मितव्ययिता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। जो ज्ञानी व्यक्ति होते हैं उनका एक भी संकल्प व्यर्थ नहीं जाता। अतः हमारी बौद्धिक और आर्थिक समृद्धि के लिए आवश्यक है कि हमारा हर क्षण शुद्ध संकल्प में लगे और हर कण का सदुपयोग हो।
15 Feb 2007
बूँद बूँद मिल सागर भरता...
Posted by हरिराम at 12:47
Labels: शिक्षाप्रद कथा
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