15 Feb 2007

शक्ति-अर्चना

जग की रचना की तब, नारी जो तूने ऐसी बनाई।
हे पावन परमात्मा! तुमको है लाखों लाख दुहाई॥

हे भाई‍‍! इन महामाया जी की बातें, तो मैं सुन चकराया।
पूर्णब्रह्म परमात्मा को भी, जिसने पग-पग नाच नचाया॥

साहित्यकारों की चाटुकारिता, जग को विभ्रम में यूँ डाला।
संग्राम समर में पूर्ण निपुण, नारी का नाम दिया क्यूँ अबला??

आठों अवगुण आठ पहर नित, इनके तन में बसा हुआ।
कामदेव धनुष सन्धाने, त्रिनेत्र भृकुटि पर सदा चढ़ा हुआ॥

हरि ने जब अवतार लिया तो, स्वयं राधिका बन आई।
कृष्ण के हाथ में दे बाँसुरी, प्रेम मदमाती धुन सुनवाई॥

ब्रह्मा और शंकर तो क्या, विष्णु भी इनसे न बच पाया।
भाग छिपे क्षीरसागर में, तो शेष सेज में बाँध सुलाया॥

नर हो चाहे नारायण, सब करें सदा गुलामी इनकी।
इसीलिए बड़े भाई जी, पीस रहे इनकी घनचक्की॥

जब साड़ी नई मिल जाती, तब झट लक्ष्मी बन जाती।
बैठ विष्णु के चरण चापती, नई छन छन छवि दिखलाती॥

हे बन्धु सुहृदवर सुनो, 'वो' नाता मत जोड़ो इनसे।
राम को वन में भेजा, दशरथ को मारा कुपद्रव से॥

शादी के पहले तो कन्या वह, दिखती बिल्कुल भोली-भाली।
पर हाय, शादी के बाद वह, निकलती पक्की गजब की गोली॥

कभी खिलखिल हँसती, कभी झिलमिल रोती, नित नवरूप दर्शाती।
कभी मन्द मन्द मुस्का हर्षाती, कभी कुटिल कटाक्ष तीर वर्षाती॥

कभी निर्लज्ज हो बनती शरारती, कभी शरमा कर सिर झुकाती।
नजरें उठाकर ज्यों गिराती, दिल पे गाज गिराती गजब ढाती॥

कभी बन्द न होती इनकी गप्पी, कभी साधती लम्बी चुप्पी।
मन के अन्दर मचे बवण्डर, मुँह फुला लेती ज्यों कुप्पी॥

गुस्सा होकर भड़भड़ बकती, सारा घर सर पर उठा लेती।
जल मरने की धमकी देती, कभी झट अपने मैके भग जाती॥

कहीं तपस्विनी, कहीं मन्दाकिनी, कहीं कुल कल्याणी कहलाती।
कहीं गंगा पावनी पापमोचनी, सबको निर्मल करती बहती॥

कहीं सर्पिणी, कहीं शेरनी, कहीं काली बन कलुष मिटाती।
कहीं सूपर्णखा, कहीं पूतना बनती, कहीं सती सीता बन जाती॥

कभी उन्मत्त, कभी अति संयत, कभी बन जाती शान्ति की मूर्ति।
जगजननी शक्ति शिवा बन, करती भक्तों की मनकामना पूर्ति॥

कभी गरजती, कभी चमकती, कभी करुणा बादल बरसाती।
कभी रण दुर्गावती बनती, झाँसी की रानी-सी तलवार चलाती॥

कभी ममता प्रेम से ओत-प्रोत, बनकर प्रेरणा स्रोत तारती।
सरस्वती, भगवती, पद्मावती, बन पार्वती पाती पूजा आरती॥

कभी डरती, कभी डराती, निज दूध पिला बच्चों को पालती।
सब कुछ वह बस, यूँ सह जाती, ज्यों धरती माता भारती॥

विचित्र चरित्र नारी का गाया, लिख-लिख कवि अब थक आया।
हे जग-निर्माता, इनकी माया, तू भी आज तक समझ न पाया॥

व्याप्त है ब्रह्माण्ड भर में, माया-मोह का इनका अति शासन।
काश! ये 'हरि' को मुक्त रखें, तो पूजूँ इनका पद-आसन॥

"सुधार हेतु सुझाव सादर आमन्त्रित हैं" - हरिराम

2 comments:

Keerti Vaidya said...

ATI SUNDER CHITRAN ......

clpatel said...

आपकी कविता में नारी के भिन्न-भिन्न प्रकार से बदलते चरित्रों का वर्णन है। पर नारी का असली रूप माँ है जो प्रेम का प्रतीक है। और वह प्रेम केवल बच्चे के प्रति होता है। आतः हमारी नजरिया नारी के प्रति माँ के रूप में होना चहिये तब कोई समस्या नहीं होगी। कहते हैं...
नारी नारी मत कहो, नारि नरक की खान।
नारी से नर होत हैं, ध्रुव प्रहलाद समान॥
परधन पत्थर जानिये, पर नारी मात समान।
ऐसे में हरि ना मिले, तो तुलसीदास जमान॥
पर द्रव्येषु लोष्टवत, पर दारेषु मातृवत।
आदि आदि---ब्रह्मा विष्णु और महेश को जन्म देने वाली माँ ही थी। माँ ही शक्ति है जो सब कार्य करती है।
आपकी कविता में बहुत कुछ स्त्री-चरित्र के विषय में दि्खाई दिया। वह सब माया ही है।
धन्यवाद!!