संयुक्त राष्ट्र एड्स विरोधी अभियान के हिन्दी जालपृष्ठ पर एड्स से बचने के लिए जीवाणुहीन की गई सूई (injection) का प्रयोग करने की सलाई दी गई है। आजकल तो हरेक डॉक्टर या कम्पाउण्डर जब सूई के माध्यम से दवा को शरीर में प्रवेश कराते हैं, तो प्रयोज्य सूई (डिस्पोजेबल सीरिंज) का ही उपयोग करते हैं, जिसकी नली प्लास्टिक की बनी होती है तथा इसके मुहाने पर पतली सूई जंगरोधी इस्पात (स्टेनलेस स्टील) की बनी होती है। बारम्बार उपयोग की जा सकनेवाली काँच की सींरिज अब पुराने जमाने की बात हो गई है। किसी पुराने ग्रामीण अस्पताल में ही शायद देखने को मिले।
इस सूई का दुबारा उपयोग नहीं किया जाता। एक व्यक्ति को लगाने के बाद यह सूई तोड़कर फेंक दी जाती है। इससे किसी एक व्यक्ति के खून में यदि कोई विषाणु हों तो वह दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलता। यही इसका लक्ष्य है?
किन्तु प्रश्न उठता है कि क्या यह अपने लक्ष्य में सफल हुई है या असफल? यदि सफल हुई है तो दिनों दिन एड्स आदि महामारियाँ बढ़ती क्यों जा रही है? एड्स से पीड़ित रोगी तो फिर भी कुछ दिन, कुछ माह या कुछ वर्ष तक जी सकता है। किन्तु इससे भी भयंकर और शीघ्र जानलेवा सार्स, चिकनगुनिया, डेंगू आदि बीमारियाँ भी दिनोंदिन क्यों फैलती जा रही हैं?
वास्तविकता क्या है?
प्रत्यक्ष रूप से देखें तो कूड़ेदान में फेंक दी गई इन (use and throw) सीरिंज को पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता। वैसे भी विज्ञान के नियम के अनुसार कोई वस्तु कभी नष्ट नहीं होती, सिर्फ उसका रूप ही परिवर्तित होता है।
इन सीरिंजों का भी पुनःचक्रण(recycling) हो जाता है। कूड़ेदान से नगरपालिका के कचरे के डिब्बे में और वहाँ से बड़े-बड़े कूड़े के भण्डारों में फेंक दिया जाता है। किसी कूड़ेखाने के पास दिखाई देता है कि कचरे में से वस्तुएँ चुन-चुन कर उठानेवाले गरीब लोगों की भीड़ लगी रहती है। जो प्लास्टिक तथा अन्य वस्तुएँ चुनकर कबाड़ियों को बेचकर कुछ रोजी-रोटी कमा लेते हैं।
कबाड़ियों के भण्डार से प्लास्टिक, लोहा, काँच, कागज आदि वस्तुएँ विभिन्न कारखानों में पहुँच जाती है, जहाँ उनका पुनःचक्रण (re-cycling) किया जाता है। लोहा आदि धातुओं को तो फिर से उच्च ताप (लगभग 200 से 600 डिग्री सेंटीग्रेड) पिघलाकर पुनरुपयोग किया जाता है। जिससे इनमें विषाणु के रहने के मौके नगण्य ही होते हैं।
लेकिन प्लास्टिक-कूड़े को अल्प ताप (लगभग 45 डिग्री से 75 डिग्री सेंटीग्रेड तक) में ही पिघलाकर पुनरुपयोगी बनाया जाता है। जिसमें विषाणुओं के रहने का खतरा भरपूर रहता है। क्योंकि इससे अधिक ताप पर प्लास्टिक जल जाता है। जलकर प्लास्टिक भयंकर विषैली गैसों में बदलता है, जो वातावरण के लिए अत्यन्त हानिकारक होती हैं।
प्लास्टिक-कचरा तो बहुत ही टिकाऊ वस्तु है। प्लास्टिक बहुकाल तक नष्ट नहीं होती है और शहरों-गाँवों-पर्यटन स्थलों यहाँ तक की हिमालय में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र प्लास्टिक-कचरा फैला पाया जाता है। प्लास्टिक का पुनरुपयोग (recycling) ही इससे निपटने का एकमात्र उपाय है।
अल्प ताप पर पिघलाकर रिसाइकल किया हुआ प्लास्टिक विषाणुओं से कदापि मुक्त नहीं हो पाता। प्लास्टिक के धारकों में खाद्य पदार्थ तो आम बात है, प्लास्टिक से निर्मित थैलियों, बर्तनों, कंटेनरों, बोतलों में औषधियाँ तक पैकिंग करके आपूर्ति की जाती है, यहाँ तक कि खून की बोतलें/पाउच भी प्लास्टिक के बने होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी नियमों के अनुसार यह प्लास्टिक मेडिकली रूप से जीवाणुरहित किया गया आई॰एस॰ओ॰/आई॰एस॰आई॰ छाप का होने का दावा किया जाता है। किन्तु चूक हर कहीं होती है। अनेक मामलों में अधिकांश आपूर्तकों द्वारा इनमें प्रयोग किया जानेवाला प्लास्टिक भी पुनःचक्रित (recycled) प्लास्टिक होता है।
हाल ही में एड्स की रोकथाम के सम्बन्ध में आयोजित एक सम्मेलन में यह प्रश्न उठाया गया था। बुद्धिजीवियों ने हरेक खाद्य पदार्थ, औषधि या चिकित्सकीय कल-पुर्जों में प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाने मांग की।
प्लास्टिक के उपयोग का हर कहीं विरोध हो रहा है। किन्तु यही एकमात्र सस्ता और सुलभ साधन है- मुख्यतः पैकिंग आदि का। अतः इसके उपयोग को बन्द करना सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसके कुछ विकल्प आविष्कृत तो हुए हैं, किन्तु व्यावसायिक रूप से सम्भाव्य और सफल नहीं हो पाए हैं।
अतः यहाँ इस सन्दर्भ में विशेषकर डिस्पोजेबल इंजेक्शन सीरिंज में प्लास्टिक के उपयोग को वर्जित किया जाना नितान्त आवश्यक है। इसके विकल्पों पर अनेक चर्चाएँ चलीं।
इस सम्बन्ध में कुछ ठोस तथ्य निम्नवत् हैं--
आजकल आधुनिक सभ्यता के अनुयायी शिक्षित नागरिकों में देखा जाता है कि वे अपने बच्चों के नाक या कान में छेद करवाने डॉक्टरों के पास ले जाते हैं, जो मेडिकली सुव्यवस्थित तरीके से जीवाणु रहित सूई से नाक-कान में छेद करते हैं और प्रोलीन का तार बाँध देते हैं, जो एण्टीसेप्टिक होता है। फिर भी देखा जाता है कि इसे निकालने के कुछ दिन बात नाक-कान के छिद्र में संदूषण (infection) हो जाता है या नाक-कान के छिद्र के घाव पक कर काफी तकलीफ पहुँचाते हैं।
दूसरी ओर प्राचीन परम्पराओं का अनुसरण करनेवाले नागरिक अपने बच्चे को सुनार के पास ले जाकर नाक-कान बिँधवाते हैं। सुनार शुद्ध सोने (लगभग 24 कैरेट) का तार अति गर्म करके ठण्डा करता है और उष्म तार की नोंक से नाक-कान में छेद करके उसी तार को मोडकर तत्काल रिंग जैसा बनाकर नाक या कान में पहना देता है। ऐसे छिद्रित किया नाक-कान संदूषित (infected) होकर कभी नहीं पकता, शायद ही इसके अपवाद स्वरूप एकाध उदाहरण सामने आए हों।
विज्ञान-सम्मत विचार है कि सोना(Gold) सर्वोधिक संदूषण-रोधी (anti-septic) धातु है। दूसरा नम्बर चाँदी(Silver) का आता है। तीसरा नम्बर ताम्बे(Copper) का आता है। आजकल भी कई कम्पनियों के महंगे विभिन्न जलशोधन यन्त्रों (water-filters) में चाँदी का उपयोग किया जाता है। राजा-महाराजा सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन करते थे। कई घरों में देखा जाता है कि वे पीने के पानी के घड़ों में तथा जलशोधकों (water-filters) में सोने या चाँदी तथा ताम्बे के चम्मच या छोटे टुकड़े डालकर रखते हैं। ताकि पानी शुद्ध रहे और उसका स्वाद भी अच्छा महसूस हो और शक्तिवर्द्धक खनिज लवण युक्त हो। इसके विपरीत लोहा सर्वाधिक संदूषण-प्रभावी होता है। वास्तु, फेंगसूई, प्राकृतिक चिकित्सा के नियमों के अनुसार आजकल अनेक सम्पन्न लोग ताम्बे के जग में रखा हुआ पानी चाँदी के गिलास से पीते दिखाई देते हैं। स्टेनलेस स्टील भले ही जंगरोधी हो किन्तु संदूषण-रोधी नहीं।
अधुनातम प्रयोगों में प्लाटिनम् धातु को सर्वाधिक महंगा, मजबूत, टिकाऊ और संदूषण-रोधी माना जाता है। दाढ़ी व बाल काटनेवाली महंगी ब्लेड प्लाटिनम के लेप-युक्त (platinum coated) आती हैं। जो सामान्य ब्लेड की तुलना में अनेक दिनों तक प्रयोग की जा सकती है।
अतः हमारा विनम्र विचार है कि चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग की जानेवाली सूई (injection syringe) प्लाटिनम् लेपयुक्त शुद्ध सोने (24 कैरेट) की तथा इसकी नली शुद्ध चाँदी की होनी चाहिए, ताकि प्राकृतिक रूप से संदूषण-रोधी हो। सामान्य आग में इसे सामान्य गर्म करके या विभिन्न एण्टी-सेप्टिक औषधियों/रसायनों (chemicals) से धोकर जिसे पूर्ण शुद्ध बनाकर फिर से उपयोग किया जा सके। वैसे भी कोई सोने-चाँदी को कदापि फेंकेगा तो नहीं।
डिस्पोजेबल, प्रयोग करो और फेंको (use and throw) के विचार को जड़ से ही मिटाना आवश्यक है, हर ऐसी वस्तु चाहे वह लिखनेवाली पेन, डॉन पेन की रिफिल्ल ही क्यों न हो। क्योंकि ये हमारी प्यारी पृथ्वी पर सिर्फ कूड़े-करकट के ढेर ही बढ़ाती हैं।
समस्त बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों, विश्व स्वास्थ्य संगठन और सभी सम्बन्धित महानुभावों का ध्यानाकर्षण करते हुए अनुरोध है कि यदि संसार भर में बढ़ते जा रहे रोगों को वास्तव में रोकना चाहते हैं तो प्लास्टिक की बनी डिस्पोजेबल सीरिंजों के उपयोग पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाया जाए, तथा शुद्ध सोने-चाँदी से निर्मित इंजेक्शन सीरिंज को प्रचलित करने की व्यावहारिकता, व्यावसायिक सम्भाव्यता और कार्यकारिता की ओर खुले दिमाग से विचार करके निर्णय लेकर यथाशीघ्र आदेश जारी किए जाएँ।
22 Feb 2007
एड्स से बचाती हैं या बढ़ाती है- डिस्पोजेबल सीरिंज?
Posted by हरिराम at 13:56
Labels: प्राकृतिक चिकित्सा, स्वास्थ्य
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5 comments:
आपने तथ्यों का युक्तिसंगत और वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। लेकिन सोने-चाँदी का इतने बड़े पैमाने पर प्रयोग कैसे संभव हो सकेगा? लोग निजी जिंदगी में आभूषणों पर भले ही लाखों खर्च करते हों, लेकिन चिकित्सा उपकरणों में इनका इस्तेमाल कर सकने का विचार भी शायद ही किसी को व्यावहारिक लगे।
आपने जो विषय उठाया है वो एड्स के प्रति भय और बढ़ायेगा। आपका लेख वैसा ही हौवा खड़ा करेगा जैसे नाई के उस्तरे से एड्स हो जाने की बेसिरपैर किवदंतियों ने खड़ा किया है। डिस्पोज़ेबल सिरिंज संक्रमण से बचने के अनेक तरीकों में से एक है, जैसे काँडोम, पर संक्रमण को पूर्णतः रोकना किसी भी माध्यम से संभव नहीं। पर बचाव सर्वथा ज़रूरी है और वो उपलब्ध साधनों से ही होगा, दिवास्वप्न देखने का क्या लाभ? बड़े अस्पतालों में आजकल सिरिंजो की सुई को बकायदा जला कर नष्ट किया जाता है। सोने जैसे सामग्री का सिरिंज में प्रयोग करने का सुझाव न व्यावहारिक है और न प्रशंसनीय। एड्स से लड़ने के लिये जिस स्तर के श्रम और पैसे की ज़रूरत है वो पहले से ही कम है, फिलहाल तो एआरटी की दवायें ही इतनी महंगी हैं कि संक्रमित व्यक्ति ज्यादा दिन जी नहीं पाते, इनका प्रबंध ज़्यादा जरूरी है।
आपका विश्लेषण एकदम वैज्ञानिक और तथ्यपरक है। लेकिन यह व्यावहारिक कतई नहीं। ऐसा गरीब देश भारत में तो क्या अमरीका में भी नहीं हो सकता।
मुजे तो लेख बड़ा अच्छा लगा। और ये बात तो शत प्रतिशत सही है कि डिस्पोज़ेबल संस्कृति ने पृथ्वी पर बहुत कूड़ा फैला रखा है। यदि सोने चाँदी का प्रयोग अव्यावाहारिक हो तब भी कोई बेहतर तकनीक तो प्रयोग में लाई ही जानी चाहिए, क्योंकि चिकित्सकीय कूड़ा बहुत बड़ी समस्या बनता जा रहा है।
देवाशीष जी, आपने ठीक कहा है "बड़े अस्पतालों में सूई की नोंक को जलाकर नष्ट कर दिया जाता है।" किन्तु प्लास्टिक बॉडी की नली को कूड़े में फेंक कर रिसाइकल हो जाती है। पहले औषधियाँ एल्यूमिनियम रैपर की पैकिंग में आती थीं, जो आजकल अधिकांशतः प्लास्टिक के आवरण में ही पैक मिलती हैं। आजकल के अभियन्ता/वैज्ञानिकों ने जैसे शहरों के गन्दे नालों को 'गंगा' जैसी पतित-पावनी को भी 'हुगली' बना डाला है, वैसे ही "यूज एण्ड थ्रो" संस्कृति भी क्या विनाश काले विपरीत बुद्धि की परिचायक नहीं?
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