पर्यावरण संरक्षण हेतु कुछ विशेष उपाय....
आज विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर अखबारों, वेबपृष्ठों में काफी सामग्री प्रकाशित हुई है। अनेकों जनसभाओं में भाषण दिए गए हैं। कुछ संस्थाओं द्वारा पौधे रोप कर रस्म निभा ली गई है। किन्तु वस्तुतः ठोस कदम उठानेवाले बहुत कम ही हैं।
पर्यावरण की हानि, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई, प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु-परिवर्तन के दुष्परिणामों से उपजने वाले विनाशकारी संकटों की झलकियाँ महाप्रलय के स्पष्ट संकेत दे रही हैं, फिर भी लोग 'कोमा' में पड़े व्यक्ति की तरह अचेत या निश्चिन्त हैं। धरती पर बढ़ते जा रहे तापमान के कारण कई क्षेत्रों की जलवायु बदलने लगी है। कर्करेखा एवं विषुवत् रेखा के मध्य के क्षेत्रों में गर्मियों की ऋतु में दिन में दोपहर बाद तक भारी गर्मी और चौथे प्रहर तेज आँधी तूफान और उसके बाद भारी वर्षा तथा ओले गिरने की घटनाएँ आए दिन होने लगी हैं। रोजाना आँधी तूफान में अनेकों पेड़ तथा बिजली के खम्भे उखड़ते जाते हैं, घण्टों बिजली गायब रहती है। और फिर अगले दिन और तेज गर्मी पड़ती है। सुलतानपुर के पास एक क्विंटल की बर्फ की सिल्ली 'ओलावृष्टि' में गिरने का भी समाचार अखबारों में छपा है। मुख्यतः गर्मियों के मौसम में ही होनेवाली वर्षा के दौरान ओले गिरते हैं।
मनुष्य को अपना भोजन, रसोई पकाने के लिए लकड़ी, औषधि, वस्त्र, मकान-निर्माण सामग्री आदि सबकुछ वृक्षों से ही मिलता है। अन्त में मरने पर शव को जलाने के लिए भी लगभग 400 किलोग्राम लकड़ी की जरूरत पड़ती है। अतः औसतन एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में 400 टन वनस्पतियों (पेड़-पौधे-लकड़ी) आदि का उपभोग कर डालता है।
किन्तु क्या हरेक व्यक्ति अपने जीवनकाल में 400 पेड़ लगाकर उनके बड़े होने तक पालन-पोषण, सुरक्षा, सिंचाई आदि भी करता है? अतः वनों की हानि होना स्वाभाविक है।
पर्यावरण-संरक्षण हेतु कुछ कठोर कदम उठाए जाने की नितान्त आवश्यकता है।
1. वृक्षारोपण हेतु नियमों में सुधार की जरूरत :
ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए सिर्फ पेड़-पौधे की सकारात्मक भूमिका निभाते हैं, जो सूर्य की किरणों को सोखकर अपना भोजन बनाते हैं। कार्बन-डाई-ऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। अतः वनीकरण एवं वृक्षारोपण नियमों में निम्नवत् कुछ कठोर सुधार लाने की नितान्त आवश्यकता है।
-- इतने व्यापक परिमाण में वृक्ष रोपे जाएँ, कहीं भी धरती का कोई भी टुकड़ा खाली दिखाई न दे।
-- कोई भी व्यक्ति कहीं भी खाली पड़ी जमीन में पेड़ लगा सके, ऐसा अधिकार हर व्यक्ति को हो, उसे रोकने का अधिकार किसी को भी न हो।
-- मकान/सड़क/रेलमार्ग/कारखाने आदि के निर्माण के लिए जमीन को खाली करने की जरूरत पड़ने पर पेड़ काटने की अनुमति तभी दी जाए, जबकि पहले उतने नए पेड़ लगा दिए जा चुके हों, जितने पत्ते उस काटेजानेवाले पेड़ में हैं। क्योंकि बडे पेड़ का एक पत्ता जितनी गर्मी सोखता है, नया रोपा गया सम्पूर्ण पौधा भी उतनी गर्मी नहीं सोख पाता।
वृक्षों का प्रतिरोपण
-- जहाँ भी सड़कें आदि चौड़ी/दोहरी करने के लिए, नई सड़कों/रेलमार्गों/भवनों आदि के निर्माण के लिए वहाँ उगे पेड़ को काटने की जरूरत पड़े, वहाँ उस पेड़ को काटने के लिए अनुमति कदापि न दी जाए। बल्कि दूसरे स्थान पर बड़ा गड्ढा खोदा जाए, उस गड्ढे में पर्याप्त खाद डाली जाए, फिर बुलडोजरों के सहारे उस पेड़ को जड़-मिट्टी सहित सावधानी से उखाड़कर वहाँ रोपा जाए, अर्थात् स्थानान्तरित/प्रतिरोपित किया जाए। तथा उस पेड़ से नए पत्ते व डालियाँ निकलने तक नियमित रूप से पर्याप्त जल-सिंचाई व्यवस्था की जाए।
ऐसे कार्य का श्रेष्ठ उदाहरण है यह है कि दिल्ली में 1980 में हुए एशियाई खेलों के लिए खेलगाँव के निर्माण के दौरान भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गान्धी जी ने बड़े बड़े पेड़ ऐसे ही रातों रात प्रतिरोपण करवा कर हरी-भरी विशाल कॉलोनी का निर्माण करवाकर आदर्श स्थापित किया था।
जो वृक्ष ज्यादा विशाल हों, उनकी कुछ डालियाँ काट कर मुख्य जड़ एवं तने का प्रतिरोपण किया जा सकता है। कुछ दिन की सिंचाई के बाद इनमें नई कोंपलें, डालियाँ निकलकर तेजी से फैलेंगी, जो नए रोपे गए पौधे की तुलना में कई गुना तेजी से फैलेंगी और गर्मी सोखेंगी। नए पौधे को उस उम्र तक पहुँच कर बड़ा होने और पर्याप्त छाया देने, गर्मी सोखने, फलने फूलने में कई वर्ष लग सकते हैं। जबकि प्रतिरोपित वृक्ष एक-दो महीने में ही फिर से हरा-भरा हो सकता है।
अतः जंगलों में भी जहाँ लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई हो, वहाँ उसकी जड़ को कदापि न उखाड़ा जाए, बल्कि जड़ एवं लगभग 4-5 फुट ऊँचे तने को छोड़ दिया जाए, उस पर गोबर, खाद, रसायनों के लेप द्वारा नए डालियों और कोंपलों को उगाया जाए और पर्याप्त सिंचाई द्वारा तेजी से विकास किया जाए।
इस प्रकार लकड़ी की जरूरत के लिए जहाँ आवश्यक हो पेड़ों की कटाई केवल वर्षा ऋतु में की जानी चाहिए, ताकि कटे पेड़ से नए कोंपलें व डालियाँ निकल कर विकसित हो सके।
जंगलों में जिन पेड़ों को काटने के लिए चिह्नित किया जाए, उसकी जड़ से 3-4 फुट ऊपर मुख्य तने में विभिन्न खाद तथा रसायनों का प्रयोग करके पहले नए कोंपलें, डालियाँ उगाई जाए। उन नई उगी कोंपलों व डालियों को सुरक्षित रखते हुए मुख्य तने को कुछ ऊपर के काटा जाना चाहिए।
भगवान जगन्नाथ जी की मूर्तियों के निर्माण के लिए भी जिस नीम के वृक्ष का चयन होता है, कुछ दिन पहले से विधिवत् उसकी पूजा-अर्चना की जाती है, उसके तने से नई कोंपलें उगाईं जाती हैं, उसके बाद ही शुभ मुहूर्त्त में मुख्य तने को ऊपर से काटा जाता है।
-- जहाँ भी दोहरी सड़कें हों, आने व जानेवाली अलग अलग सड़कों के बीच में नारियल, देवदारू जैसे सीधे खड़े होनेवाले कम चौड़े अधिक ऊँचे पेड़ हर 10 फुट की दूरी पर लगाना अनिवार्य किया जाए।
-- चोरी से पेड़ काट ले जानेवालों को कठोर दण्ड दिया जाए। उन्हें सश्रम कारावास की सजा में उनसे बंजर भूमि में पेड़ उगवाने तथा नियमित सिंचाई करने का ही काम लिया जाए।
-- शहरों में पक्के मकानों, कंक्रीट/एज्बेस्टस/टाइल की छत वाले मकानों, बहुमंजिली इमारतों की छतों पर बड़े गमलों में और खिड़कियों, बालकोनियों पर छोटे गमलों में उगाकर लताएँ आच्छादित करना विभिन्न नगरपालिकाओं, नगरनिगमों, आवास-विकास-बोर्ड द्वारा अनिवार्य घोषित किया जाए। बहुमंजिली इमारतों पर लताओं को गमलों में लगाकर खिड़कियों/बालकोनी में रखकर नीचे लटककर स्वतः फैलने दिया जा सकता है, इन्हें ऊपर चढ़ाने के लिए किसी सहारे के लगाने के जरूरत नहीं है। ऐसे गमलों चौकोर (कम ऊँचे अधिक चौड़े) होने चाहिए, ताकि आँधी-तूफान के वक्त लुढ़ककर गिर न जाएँ।
2. अपशिष्ट जल (Swerage) का पुनःउपयोग :
-- शहरों से अपशिष्ट जल (Swerage) के उपचार हेतु अनिवार्य व्यवस्थाएँ की जाए। संयंत्रों द्वारा छाना हुआ/शुद्ध किया हुआ पानी विभिन्न खाली पड़ी जमीनों में वृक्षों की सिंचाई के लिए उपयोग किया जाए। इससे दोहरी समस्या का समाधान होगा। एक ओर मलजल के निपटान में सहयोग मिलेगा, दूसरी ओर व्यापक वनीकरण में सहयोग मिलेगा।
पुरी (जगन्नाथ पुरी, ओड़िशा) नगर के समग्र मल-जल को समुद्र में नहीं छोड़ा जाता, बल्कि एक बड़े तालाब में भण्डारित करके मलजल उपचार संयंत्र से विशोधित किया जाता है। तथा इस पानी को समुद्र किनारे "झाऊँ" वक्षों की 'हरित पट्टी' में सिंचाई में उपयोग किया जाता है। इससे समुद्र तट सुरम्य तथा गर्मीरहित शीतल बना रहता है। भारत के समग्र समुद्रतटों में नहानेयोग्य सबसे अधिक शुद्ध पानी पुरी के समुद्र का ही माना जा चुका है। अन्य समुद्रतटीय नगरों को भी इसका अनुकरण कर सागर को 'नर्क' बनाने से बचाना चाहिए।
शहरों के गन्दे नालों नदियों में छोड़ने पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाया जाए। नदी में निष्कासित होनेवाले नालों को तत्काल बन्द करके शहर के बाहर निचली जमीन में तालाब खोदकर उसमें उस गन्दगी को संग्रहीत किया जाए तथा इसके जल को विशोधित कर वृक्षारोपण एवं वनीकरण में उपयोग किया जाए। मल को खाद बनाने हेतु उपयोग किया जाना चाहिए और वनीकरण में इसका उपयोग किया जाना चाहिए।
-- हर राष्ट्र के कुल बजट का 2 प्रतिशत वृक्षारोपण तथा टैंकरों/पाइपलाइन/वाष्पीकरण/कृत्रिम-वर्षा के द्वारा नए वृक्षों में पानी डालकर सिचाई करने की व्यवस्था में खर्च किया जाए।
-- बेकार श्रमिकों/ रोजगार कार्यालयों में बेकार युवाओं को कुछ निर्धारित पारिश्रमिक पर अनिवार्य रूप से वृक्षारोपण के कार्य में लगाया जाए। अधिकाधिक पेड़ लगाने और उनके बड़े होने तक देखभाल करनेवाले युवाओं को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाए।
-- चाहे सरकारी भूमि हो, या निजी भूमि हो, जो भी भूमि पेड़-पौधों या फसल से रहित दिखाई दे, बंजर जैसी दिखाई दे, उस पर अतरिक्त कर(tax) प्रभार लगाकर कठोरता से वसूल किया जाए। इस प्रकार कर-वसूली से हुई आय में से उन व्यक्तियों को पुरस्कार/पारिश्रमिक दिए जाएँ जो अपनी समग्र जमीन को हरा-भरा रखते हों।
3. कूड़ा-करकट को जलाना प्रतिबन्धित घोषित किया जाए तथा पुनःउपयोग की व्यवस्था की जाए:
शहरों में देखा जाता है कि नगरपालिका के कर्मचारी ही कूड़ा-करकट ढोकर ले जाने हेतु पर्याप्त गाड़ियों आदि की व्यवस्था के अभाव में हो या आलस्यवश हो गलियों में इकट्ठा करके आग लगाकर भाग जाते हैं, जो घण्टों तक सुलगता रहता है, भयंकर धुआँ और दुर्गन्ध फैलाता है। इससे वातावरण में गर्मी बढ़ती है, वायु-प्रदूषण बढ़ता है, बीमारियाँ फैलती हैं। विशेषकर प्लास्टिक के जलने के उपजनेवाला धुआँ जहरीला होता है तथा सैंकड़ों लाइलाज व जानलेवा बीमारियों को फैलाता है।
सिंगापुर, न्यूयार्क, मुम्बई, बेंगलोर आदि कई शहरों में कूड़ा-करकट जलाने पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। अतः संसार के हर स्थान पर कूड़ा-करकट जलाने पर ऐसे ही प्रतिबन्ध अनिवार्य रूप से लगाए जाने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की सम्बन्धित संस्थाओं को कठोर आदेश जारी करने चाहिए।
कूड़ा-करकट का पुनःउपयोग करने के लिए विभिन्न व्यवस्थाओं में खाद बनाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। क्योंकि कूड़ा-करकट में 80% कचरा वनस्पति-जन्य होता है। कूड़े से निकले प्लास्टिक को तो अनिवार्य रूप से पुनचक्रित कर फिर से काम में लगाना अत्यन्त आवश्यक है। कूड़े में मिली बेकार प्लास्टिक की पतली थैलियों को कोलतार में मिलाकर सड़क निर्माण के काम लगाना एक अच्छा उपाय है।
-- कूड़ा-करकट को पुनःचक्रित (recycle) करने के लिए संस्थाओँ तथा निजी उद्यमियों को आकर्षित करने के लिए सरकारी स्तर पर व्यापक प्रोत्साहन, तकनीकी तथा आर्थिक सहायता देने की नई योजनाओं के प्रवर्तन और इनको लागू करने की नितान्त आवश्यकता है।
-- कूड़ा-करकट को जलाकर बिजली बनाने का काम करना एक घटिया उपाय है। इससे प्रदूषण बढ़ेगा, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी। अतः यह अन्तिम उपाय के रूप में ही किया जाना चाहिए। ऐसे कूड़े को पहले सोलर कन्सेन्ट्रेटर द्वारा पर्याप्त सुखाने के बाद में भट्ठियों में बड़े इण्डस्ट्रियल फैन से पर्याप्त हवा पम्प करते हुए जलाना चाहिए ताकि कम से कम धुआँ व कार्बन-डाई-ऑक्साइड निष्कासित हो और अधिकतम ताप उपलब्ध हो तथा बॉयलर पूरी क्षमता से चल सकें।
4. विद्युत पर निर्भरता कम की जाए :
आज संसार के अधिकांश लोग बिजली (Electricity) के गुलाम हो चुके हैं। विशेषकर शहरों में तो लोगों को बिना बिजली के एक मिनट रहना भी दूभर लगता है। प्रकाश(वाल्व, ट्यूबलाइट..) हवा (पंखे, कूल, ए.सी.), पानी (मोटर पम्प के द्वारा), भोजन (हीटर द्वारा), मनोरंजन (दूरदर्शन चैनल के कार्यक्रम), संचार, कम्प्यूटर सब कुछ विद्युत पर ही निर्भर होता है।
बिजली की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। नदी-बाँधों से पन-बिजली और पवनचक्कियों से सृजित बिजली या सौर ऊर्जा से सृजित विद्युत जनता की मांग को पूरा नहीं कर पाती। इसलिए कोयला जलाकर या गैस या पेट्रोलियम तेल जलाकर बड़े ब़ड़े ताप विद्युत सृजन कारखानों से बिजली सृजित कर वितरित की जाती है, जो प्राकृतिक सम्पदा की भारी खपत साथ साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाती है।
अक्सर देखा जाता है कि शहरों में लोग टी.वी. के सामने ड्राईंग रुम सीरियल, फिल्म या समाचार देखने ही सारा समय बिता देते हैं। पड़ोसी का नाम तक मालूम करने की कोशिश नहीं। बच्चे भी पढ़ाई भूलकर टी.वी. पर कार्टून आदि देखने में काफी समय बिताते हैं। हाँ, जब कभी विद्युत-प्रवाह कट जाता है, बिजली चली जाती है, तभी लोग घरों से बाहर बालकोनी या गलियों में निकलते हैं, पड़ोसियों से बात करते हैं या छत पर जाकर अड़ोस-पड़ोस में निहारते हैं।
अतः लोगों को बिना बिजली के कुछ दशकों पहले जैसा प्राकृतिक जीवन यापन करने की याद दिलाने तथा वैसा ही अभ्यास बनाए रखने के लिए हर स्थानों पर रोजाना एक घण्टे सुबह (कार्यालय समय के पहले) तथा शाम को (कार्यालय समय के बाद) बिजली कटौती अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। ताकि लोग घरों से बाहर निकलने को मजबूर हों और प्राकृतिक जीवन बिताने का कुछ अभ्यास करें।
5. विश्व पर्यावरण दिवस एक धार्मिक पर्व के रूप में मनाया जाए :
आज भी विश्व की आधी जनसंख्या धार्मिक आस्थावादी है। धर्म के लिए बहुत कुछ न्यौछावर करती है। विभिन्न धर्मों में वृक्षों की पूजा करने का विधान रहा है। हिन्दू धर्म में तो तुलसी, बरगद, पीपल, केले, आम, शमी आदि वृक्षों/पौधों की पूजा की जाती है। कई प्रकार की ग्रह-दशाओं से, संकटों से मुक्ति के लिए बरगद एवं पीपल के पेड़ लगाने तथा रोज सींचने की सलाह ज्योतिषियों/पण्डितों द्वारा दी जाती है।
ऋग्वेद में कहा गया है :
यत ते भूमे विश्वनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम।।
इसका अर्थ कुछ यूँ है :
हे धरती माता, जब मैं भोजन, औषधि आदि के लिए वनस्पतियों को काटता हूँ, तुम्हारे तन को खोदता हूँ, तो तुम्हारे घाव जल्दी भरें, अनेक गुना वनस्पतियाँ बढ़ें।
मत्स्य पुराण में कहा गया है:
“पानी के अभाव के स्थान पर जो व्यक्ति एक कुँवा खुदवाता है, वह उतने वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है, जब तक कि उस कुँए में पानी की बूँदें रहें। एक तालाब बनवाने से ऐसे दस कुँए खुदवाने के बराबर फल मिलता है और एक गुणवान पुत्र को जन्म देकर पोषण करने से ऐसे दस तालाब खुदवाने के बराबर फल मिलता है। और दस पुत्रों का पोषण करने के बराबर फल मिलता है एक वृक्ष को लगाकर उसको पालने पर।" और ऐसे दस वृक्षों को लगाने/पालने के बराबर फल मिलता है, एक पीपल का पेड़ लगाने/पालने पर।
क्योंकि पीपल के वृक्ष की महिमा तो स्वयं भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में की है।
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्" गीता-15.1
"अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां न नारदः", गीता- 10.26
वैज्ञानिकों ने भी अनेक शोध के बाद पाया है कि एकमात्र पीपल का वृक्ष ही ऐसा पेड़ है जो रात को भी कार्बन-डाई-ऑक्साइड शोखकर ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है। अन्य सभी पेड़ केवल दिन के समय धूप के प्रकाश को संश्लेषित कर कार्बन-डाई-ऑक्साइड अवशोषित कर अपना भोजन बनाने में उपयोग कर पाते हैं।
तुलसीदास जी ने भी कहा है :
उत्तम खेती, मध्यम वाणी। अधम चाकरी, भीख निदानी।।
अर्थात् सबसे उत्तम कार्य कृषि कार्य है, क्योंकि एक बीज बोयें तो अनेक/लाखों/करोड़ों बीज वापस मिल सकते हैं। मध्यम कार्य वाणिज्य या व्यापार है, जो अच्छा लाभ देता है। अधम कार्य नौकरी करना है। सबसे निकृष्ट कार्य है भीख माँगना।
अतः हर व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय निकालकर कृषि/बागवानी के लिए अवश्य लगाना चाहिए।
अतः धर्मनेताओं, धर्मगुरुओं, शंकराचार्यों, स्वामियों, संन्यासियों आदि को चाहिए कि ऐसी पौराणिक मान्यताओं को फिर से प्रचलित/प्रचारित/प्रसारित करें और "सबसे बड़ा पुण्य" वृक्षारोपण एवं प्रदूषण-नियन्त्रण को बताते हुए कुछ व्याख्यान दें। समस्त पूजा-पाठ, योग, जप, तप, दान से बढ़कर कार्य वृक्षों को लगाने, पालपोस कर बड़ा करने, सींचने से होगा, यही प्राचीन धार्मिक उपदेश फिर से प्रचारित करने में जी-जान से लग जाएँ। वायु प्रदूषण सबसे बड़ा पाप है, इसका व्यापक प्रचार करें और लोगों को पर्यावरण को शुद्ध रखने को प्रेरित करें।
सभी पाठक बन्धुओं से अपील है कि वे इस लेख की जितनी चाहें कापियाँ कर सकते हैं, जिसको चाहें पढ़ने के लिए आमन्त्रित कर सकते हैं। चाहें तो नकल करके अपने नाम भी प्रकाशित कर सकते हैं। वे चाहें तो इसे अन्य भाषाओं में अनुदित कर सकते हैं। यदि वे इसे सरकारों, धार्मिक संस्थाओं, संयुक्त राष्ट्र संघ - पर्यावरण संस्थान, जी-8 सम्मेलन के पदाधिकारियों .... विभिन्न सम्बन्धित संस्थानों को प्रेषित करें, कुछ कार्यवाही करवाएँ तो वे भी परम पुण्य के अधिकारी होंगे।
यह लेख मुक्त स्रोत के अन्तर्गत समर्पित हैं। कोई कॉपीराइट नहीं है। इसकी नकल करने का पूरा अधिकार दिया जाता है। पाठक इसकी सामग्री को अपने ब्लाग में भी डाल सकते हैं। चाहें तो इसकी कड़ी भी दे सकते हैं।
जो पाठक पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियन्त्रण के नए नए व्यावहारिक उपाय टिप्पणी में सुझायेंगे, वे इस परम पुण्यकार्य का विशेष फल पाने के हकदार होंगे।
14 comments:
काश सभी लोग ऐसा सोचे और करें ।
पर्यावरण पर आपकी समझ आदरयोग्य है. मत्स्यपुराण में कही गयी इस बात का विश्लेषण ज्यादा कारगर होता.
कैसे दस सुपुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है, यह लोगों को बताने की आवश्यकता है.
एकबार फिर,
धन्यवाद.
हरिराम जी, आप कॉपीराईट वाले अपने विचार पर फिर सोचिए. ज्ञान पर कॉपीराईट होता तो पुराणों का उद्भरण आप कहां से देते?
विश्व पर्यावरण दिवस एक धार्मिक पर्व के रूप में मनाया जाए--- बिल्कुल सहमत हूँ जनाब से...मगर एक दिवस ही क्यूँ हर दिवस इसकी जागरुकता रहना चाहिये.
बढ़िया विचार हैं।
राग
पर्यावरण दिवस पर आपके सुझाव सचमुच प्रशंसनिय है। इसके लिये सभी को जागरूक होने की आवश्यकता है,एक ठोस कदम भी हम सब को मिल कर उठाना होगा। धर्म का रूप देने से इसे अधिकतर लोग समझ सकेंगे क्यूंकि ज्यादातर लोग धर्माध होते है..यदि उन्हे ये कहेंगे की पीपल हमें रात-दिन आक्सीज़न देता है तो कोई भी उसे काटते हुए देर नही लगायेगा..मगर यदि धर्म को आडे़ लायेंगे और कहेंगे पीपल में देवता बसते है तो लोग उसकी पूजा करेंगे...
आपके सभी सुझाव बेहद पसंद आये है..धन्यवाद
सुनीता(शानू)
क्या कहूँ, बहुत ही बढ़िया लेख है। आपने बिल्कुल स्टीक उपाय बताए हैं। इस लेख को संभाल कर रखें, काम आएगा। समय समय पर थोड़ा बहुत संशोधन करते रहें। ये उपाय अगर अच्छी तरह लागू हो गए तो भारत भी जर्मनी जैसा स्वर्ग बन जाएगा।
रजनीश मंगला जी और सुनीता जी! आपके सुझाव मानकर इस लेख को रोजाना अद्यतन करके नई जानकारियाँ जोड़ रहा हूँ, ताकि पर्यावरण विज्ञान का एक अच्छा सन्दर्भ बन सके, एवं संयुक्त राष्ट्र के प्राधिकारियों का ध्यानाकर्षण किया जा सके।
पर्यावरण को उसके प्राकृतिक रूप में बचाये रखने लिये आपका चिन्तन बहुत ही सार्थक, सटीक, व्यावहारिक और कारगर है। लेख और विचार बहुत पसन्द आया।
हिन्दी चिट्ठाजगत को ऐसे ही स्तरीय और मौलिक लेखों की आवश्यकता ऐ। ऐसे लेख हिन्दी चिट्ठाजगत के पर्यावरण के लिये संजीवनी का काम करेंगे।
बहुत ही मौलिक और शानदार लेख। आपके विचार मनन करने योग्य हैं।
सेवा-सौरभ नाम के हमारे स्वयंसेवी संगठन द्वारा शीघ्र ही संस्कृति.देशप्रेम और पर्यावरण पर एकाग्र एक स्मारिका का प्रकाशन करने जा रहे हैं आपका लेख पर्यावरण दिवस ...कुछ विशेष उपाय ..उक्त स्मारिका पर प्रकाशित करना चाहेंगे.यदि आपकी सहमति हो तो कृपया मुझे ई-मेल कर दीजियेगा.आभारी रहेंगे.
संजय पटेल.
पर्यावरण पर rachanakar.blogspot.com par मेरा एक लेख जारी हुआ था.एक और लेख bhashasamvad.wordpress.com पर भी है.कृपया पढि़येगा..आपकी प्रतिक्रिया मिलेगी तो अच्छा लगेगा.
बहुत ही ज्ञानवर्द्धक लेख हैं। अब ये बताएं क्या आप सौर ऊर्जा के बारे में जानते हैं जिसका उपयोग बिजली बनाने के लिए किया जा सके और वो सस्ता भी पड़े, घर में इस्तेमाल करने के लिए
ये बात भी समझ नहीं आती कि आखिर भारत में सौर उर्जा का भरपूर उपयोग क्यों नहीं होता। इतनी गर्मी पड़ती है, मुफ़्त का माल है, फिर भी कोयला, पानी पर नज़र टिकाए रहते हैं। इटली, तुर्की में तो हर घर की छत सोलर पैनलों से ढंकी हुई है। जर्मनी, जहाँ धूप कम ही पड़ती है, वहाँ भी सौर्य ऊर्जा का चलन बढ़ रहा है। लेकिन भारत अनोखा देश है।
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