30 Apr 2007

3% ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रहा है अकेला ओड़िशा प्रान्त...

3% ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रहा है अकेला ओड़िशा प्रान्त...

धरती की गर्मी बढ़ते जाना आजकल समाचारों में एक ज्वलन्त मुद्दा है। ओजोन परत में बड़े बड़े छेद हो गए हैं, ध्रुवीय ग्लेशियर पिघल रहे हैं, हिमालय की बर्फीली चोटियाँ पिघल रही है, प्रकति की जलवायु बदल रही है, जब-तब, जहाँ-तहाँ, भारी वर्षा, बाढ़, तूफान, सूखा, भूकम्प, सुनामी, आदि प्राकृतिक आपदाएँ आकर जान-माल का भारी नुकसान कर दे रही हैं....

भुवनेश्वर से प्रकाशित ओड़िआ दैनिक 'धरित्री' के दिनांक 15 अप्रैल के अंक के पृ.2 पर प्रकाशित समाचार के अनुसार
समग्र धरती पर जितना कुल ताप सृजित होता है उसमें से लगभग 3 प्रतिशत तक छोटे से प्रान्त ओड़िशा से सृजित हो रहा है और भविष्य में यह स्थिति और भी तीव्र होने की आशंका है, सन् 2010 तक यह आँकड़ा 7 से 10 प्रतिशत तक भी बढ़ सकता है, जो पर्यावरणविदों की चिन्ता का कारण बना हुआ है। इसका कारण है यहाँ बढ़ते जा रहे उद्योंगों तथा अन्य उद्देश्यों के जंगलों की व्यापक रूप से कटाई, तथा तूफानों के कारण जंगलों की तबाही। 1989 से 2006 के बीच के 17 वर्षों में इस राज्य में लगभग 27479.653 हेक्टर जंगलों का सफाया हो चुका है। उद्योगों आदि में प्रमुख है विभिन्न अयस्कों की विशाल खानें, सिचाई योजनाएँ, कल-कारखाने, शहरीकरण, सड़कों, रेल-लाइनों और विद्युत-लाइनें। सड़कों, रेलमार्गों, मकानों आदि के निर्माण हेतु भारी मात्रा में कंक्रीट आदि के लिए पत्थरों गिट्टियों की जरूरत को पूरा करने के लिए कई छोटे-बड़े पहाड़ ही तोड़ तोड़ कर उखाड़े जा चुके हैं।

पर्यावरण सुरक्षा के नियमों के अनुसार जंगलों की कटाई के बदले इसकी तीन गुना भूमि पर वृक्षारोपण किए जाने चाहिए, लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हो पाता। वृक्षारोपण की कागजी कार्यवाही की जाती है, करोड़ों का खर्च दर्शाया जाता है। कई कम्पनियों द्वारा वास्तविक रूप से काफी मात्रा में वृक्षारोपण किए भी जाते हैं, कुछ जंगली क्षेत्र में तो कुछ शहरी एवं बंजर भूमि पर। किन्तु नए रोपे गए पौधों में से कितने बचे, कितने बड़े हुए इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। अनुमान से नए लगाए गए पेड़ों में से लगभग सिर्फ एक प्रतिशत ही बच कर बड़े हो पाते हैं। शेष पौधे सिंचाई के अभाव, पशुओं एवं दुष्टों से सुरक्षा के अभाव तथा तूफान आदि के कारण मर जाते हैं।

सबसे बड़ा कारण है ओड़िशा की बदलती जलवायु। 29 से 31 अक्टूबर, 1999 में ओड़िशा के पूर्वी तटवर्ती क्षेत्र में आए चक्रवाती-महातूफान (Super Cyclone) में जान-माल के भारी नुकसान के साथ वृक्षों एवं वनों का लगभग पूरी तरह विनाश हो गया था। इस महातूफान की भयंकरता अनुमान इस उदाहरण से ले सकते हैं कि 10 मीटर परिधि घेरे के चौड़े तने वाले विशाल बरगद के पेड़, जो शायद कम से कम 200 वर्ष पुराने थे, उसके चारों ओर बने 40 मीटर की परिधि के सीमेण्ट के पक्के चबूतरे सहित उखड़ गए थे। ढाई दिन तक 300 किलोमीटर प्रतिघण्टे की तीव्र रफ्तार से चली हवा के साथ भारी वर्षा ने यहाँ भयंकर विनाश का ताण्डव मचाया था। समुद्र का पानी 30 फुट तक ऊँचा उठकर कई किलोमीटर तक तटवर्ती क्षेत्र को ले डूबा था। तूफान के बाद समुद्र का पानी वापस कम हुआ तो देखा गया कि पारादीप बन्दरगाह से कुछ किलोमीटर दूर एक गाँव में एक जहाज भी तूफान के बहाव में वहाँ आकर फँस गया था। वह जहाज पानी के साथ समुद्र में लौट नहीं पाया। इतने बड़े जहाज हो वापस ढोकर समुद्र में ले जाना सम्भव नहीं था। उसे टुकड़े टुकड़े कर तोड़ कर वहाँ से हटाया गया, जिसमें भी 2 वर्ष लग गए थे।

इतने व्यापक परिमाण में वृक्षों की हानि होने के बाद यह इलाका लगभग वृक्ष-शून्य बन गया था। इसके बाद से यहाँ की गर्मी बढ़ने लगी है। और गर्मी बढ़ने से समुद्र का पानी तेजी से भाप बनकर आकाश में जमा होता है। ग्रीष्म काल में रोजाना दोपहर तक भारी गर्मी पड़ती है और दोपहर बाद आकाश में काले बादल छा जाते हैं तथा पहले भयंकर गरज के साथ तेज तूफानी हवाएँ चलती हैं फिर वर्षा आ जाती है। लगभग रोजाना आनेवाली इन लघु आँधियों के कारण नए लगाए गए पेड़ों में से भी कुछ उखड़ जाते हैं, तो कुछ की डालियाँ टूट जाती है। फसल व सब्जियों को भारी नुकसान होता है। पपीते, सहजन आदि सब्जियों व फलों के पेड़ तो सबसे पहले उखड़ते हैं। भुवनेश्वर के स्थानीय सब्जी बाजारों में सहजन फली 40 से 50 रुपये प्रति किलो तक महंगी बिकने लगी है।

समुद्री तटवर्ती इलाकों में तो गर्मी के कारण समुद्र से जलवाष्प ज्यादा बनने के कारण हवा में आर्द्रता का परिमाण 99% तक बढ़ जाता है और पसीने से लथपथ लोग विकल होकर तड़पते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे मानव नहीं, बल्कि आलू हैं जिन्हें प्रेसर कुकर में डालकर भाप (steam) में उबाला जा रहा है।

राज्य सरकारी आदेशों के अनुसार अप्रेल के आरम्भ से ही सभी स्कूल-कॉलेजों की छुटटी सुबह साढ़े दस बजे तक करने के आदेश जारी किए जा चुके हैं। कुछ स्कूल प्रातःकाल 7 बजे से 10.30 बजे तक ही खुलते हैं तो कुछ स्कूल शाम को 4 बजे से 7.30 बजे तक खुलने लगे हैं। फिर भी लू तथा शरीर में जलांश कम होने से होनेवाली मौतों की संख्या बढ़ने लगी है।

धीरे धीरे इस प्रकार बढ़ती गर्मी के कारण आनेवाले तूफानों का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है और पश्चिम ओड़िशा में भी अब तूफानी आँधियाँ आने लगीं हैं। जिनसे जंगलों को और भी व्यापक नुकसान पहुँच रहा है और पृथ्वी की गर्मी बढ़ाने में ज्यादा से ज्यादा योगदान करने लगा है यह प्रान्त। आशंका होने लगी है कि अब क्रमशः पड़ोसी राज्यों में भी यह गर्मी, आँघी और तूफान की महामारी फैलने लगेगी और...... भविष्य में क्या होगा?

कुछ पर्यावरण विद बताते हैं कि आए दिन आनेवाले आँधी-तूफानों का कारण भारत के पूर्वी तट से पाँच-छह सौ किलोमीटर दूर समुद्र (जहाँ मुक्त क्षेत्र है, किसी देश के अन्तर्गत नहीं हैं) के ऊपर आकाश में ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र हो गया है, जिससे सूर्य की पराबैंगनी किरणे सीधे पड़कर समुद्र जल को उबाल देती हैं और भारी बादल बनने तथा गर्म वायु में निम्नदाब पैदा होने के कारण चक्रवाती तूफान अक्सर आ जाते हैं। कुछ पर्यावरण विद्वानों के अनुसार ओजोन परत में छिद्र होने का कारण इस समुद्री मुक्त क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्रों द्वारा बमों तथा मिजाइलों का अक्सर परीक्षण किया जाना हैं।

क्या सचमुच 500 वर्ष पूर्व ओड़िशा के प्रसिद्ध सन्त-कवि अच्युतानन्द दास द्वारा "माळिका" (काव्य) में की गई भविष्यवाणियाँ सच होने जा रही हैं कि समुद्र का जल बढ़ेगा और पुरी नगर डूब जाएगा, भगवान जगन्नाथ जी भी "छतिया" ग्राम में स्थानान्तरित हो जाएँगे?

क्या यह सब प्रलय के संकेत हैं? अणु बमों, अस्त्र-शस्त्रों, मिजाइलों के आविष्कार तथा निर्माण में अविरत लगे ये वैज्ञानिक तूफानों, प्रकृति के प्रकोप से बचने-बचाने का कोई आविष्कार क्यों नहीं करते? क्या तूफानों को रोकने का कोई यन्त्र निर्माण कर पाएँगे विश्व के वैज्ञानिक? अणु-बमों और मिजाइलों को दूर आसमान में ही निगल कर हजम कर सकनेवाली 'सुरसा' जैसे यन्त्र का आविष्कार क्यों नहीं करते ये वैज्ञानिक?

तूफानों को रोकने की क्षमता सिर्फ पहाड़ों में होती है, जिनकी गुफाओं में मानव तथा जिसकी तराई में पेड़-पौधे बचे रह सकते हैं। लेकिन शहरीकरण आदि विभिन्न निर्माणों हेतु पहाड़ ही तोड़ तोड़ कर गायब गए जा रहे हैं। आज के वैज्ञानिक नए पहाड़ बनाने का कोई आविष्कार क्यों नहीं करते?

3 comments:

अभय तिवारी said...

आपकी सूचनायें बहुत ज़रूरी बहुत अच्छी हैं.. मगर ये मामला बेहद डरावना बेहद दुःखद है.. क्या हम मनुष्य गण अपने ही हाथों विनाश हो जाने के लिये अभिशप्त हैं.. ?

ललित said...

सचमुच कटु सत्य है आपका लेख। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्बन्धी संगठनों को कठोर कदम उठाने चाहिए अणुबमों, मिज़ाइलों आदि के परीक्षणों को रोकने के लिए। ताकि ओजोन परत में और छेद न हों।

azdak said...

भल्‍ल लेखिछ.. एमितिया लागि रअह..