5 Jan 2007

रहस्य: ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का

विज्ञान के अनुसार हर कण-कण में ऊर्जा विद्यमान है। आधुनिक युग में ऊर्जा का सर्वाधिक उपयोग विद्युत रूप में होता है। जलप्रवाह से, हवा (पवनचक्कियों) से, सूर्य किरणों से और परमाणु संयंत्रों से विद्युत ऊर्जा सृजित की जाती है। विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है और इसकी तुलना में उत्पादन कम पड़ता जा रहा है। अधिकाधिक विद्युत संयंत्रों की स्थापना की आवश्यकता महसूस होने लगी है।

हरेक पदार्थ के सूक्ष्मतम कण को अणु कहते हैं, अणु को भी विखण्डित करने पर परमाणु मिलते हैं। परमाणु का एक नाभिकीय होता है और उसके चारों ओर कुछ इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन चक्कर काटते रहते हैं। कुछ धनात्मक आवेश के होते हैं तो कुछ ऋणात्मक आवेश के। कुछ घड़ी की सुईयों की तरह दक्षिणमार्गीय चक्कर लगाते हैं तो घड़ी की सुइयों की गति के विपरीत दिशा में अर्थात् वाममार्गी चक्कर काटते हैं। अलग-अलग पदार्थों के परमाणुओं के नाभिकीय, इलेक्ट्रान व प्रोटोन की गति व संरचना अलग-अलग प्रकार की होती है।

परमाणु के विखण्डन और संलयन या विलय से अपार ऊर्जा सृजित होती है। परमाणु बम भयंकर विनाश कर सकते हैं। आज संसार में जितने परमाणु बम बन चुके हैं उतने से समग्र पृथ्वी का कई बार विनाश हो सकता है।

आकाश में हमारे सौर मण्डल में सूर्य ऊर्जा का अपार स्रोत है। सूर्य नहीं होता तो कोई जीव-जन्तु भी नहीं हो सकते थे। हम जानते हैं कि 100 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म करने पर पानी उबलने लगता है। लेकिन सूर्य का तापमान करोड़ों डिग्री सेंटीग्रेड होने का अनुमान किया गया है। चूँकि गर्म करने पर धातु फैलती हैं तथा ठण्डी करने पर सिकुड़ती हैं। इसलिए इतने तापमान वाला सूर्य हिलियम जैसी गैसों का बना आग का विशाल तारा होने का अनुमान किया गया है। सूर्य की धूप धरती पर जब सिर्फ 40 डिग्री से अधिक होने लगती है तो यह मानव की सामान्य सहनशक्ति के बाहर की बात हो जाती है।

लेकिन आसमान में ब्लेक होल या कृष्ण विवर जैसे भयंकर काले तारे भी हैं जो कई सूर्य जैसे विशाल तारों को भी निगल जाते हैं। क्या रहस्य है इन ब्लेक होल्स का।

वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि जिस प्रकार सूर्य विशालकाय आग का गोला है, जिसका तापमान करोड़ों डिग्री सेंटिग्रड (+) धनात्मक है, ब्लेक होल इसके विपरीत ऐसे तारे हैं जिनका तापमान करोड़ों डिग्री सेंटिग्रेड (-) ऋणात्मक है। अर्थात् इतने ठण्डे हैं। ठण्डी होने पर वस्तु सिकुड़ कर अति सघन हो जाती है और उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति अत्यन्त प्रबल हो जाती है। अति सुचालका (super conductivity) भी उसमें उत्प्लावित होती है। अतः एक ब्लेक होल के एक सरसों के दाने के बराबर का टुकड़ा एक टन वजन के बराबर का हो सकता है। इनका गुरुत्वाकर्षण इतना ज्यादा होता है कि सूर्य जैसे विशाल तारे भी खिंच कर इनमें समाकर खत्म हो जाते हैं। उनकी असीमित अग्नि को बुझाकर या अति-ग्रीष्मता को शीतल कर देते हैं।

चिकित्सा विज्ञान में भी क्रायोसर्जरी प्रक्रिया से बिना किसी दर्द व चीर फाड़ के शल्यक्रिया के आपरेशन करके रोगियों का इलाज किया जाता है, जिसमें एक सूई को नाइट्रोडन गैस से माइनस (-) 300 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान तक ठण्डा करके शरीर के जिस स्थान को छुआ दिया जाता है, इस स्थान की कोषिकाएँ चेतना शून्य (dead cell) हो जाती हैं। और बाद में वह प्रत्यंग अपने आप सूख कर चमड़ी से अलग हो जाते हैं।

जिस प्रकार प्रकाश ऊर्जा का स्रोत है उसी प्रकार प्रकाश का अभाव अर्थात् अन्धेरा भी ऊर्जा का स्रोत है। रात और दिन दोनों का ही अपना-अपना महत्त्व है। छाया का महत्त्व प्रकाश से कम नहीं आँका जा सकता। ज्योतिष विज्ञान में इसीलिए राहु और केतु छाया ग्रहों के प्रभाव को अधिक बलवान माना गया है। इसके आधार पर अभाव और संकटों तथा विपदाओं की भविष्यवाणी की जाती है।

संसार में पुरुष को दक्षिण मार्गी तथा नारी को वाम मार्गी कहा जाता है। पुरुष को धनात्मक एवं नारी को ऋणात्मक ऊर्जा की संज्ञा भी दी गई है। कहते हैं कि बिना शक्ति के शिव भी शव के बराबर होते हैं। योनिरहित शिवलिंग को शक्तिहीन माना जाता है। संसार में नारी शक्ति का महत्त्व कहीं ज्यादा बड़ा है, क्योंकि यदि नारी नहीं होती तो किसी पुरुष का जन्म भी नहीं हो सकता था। इस प्रकार नेगेटिव एनर्जी को पोजिटिव एनर्जी से अधिक शक्तिशाली माना गया है।

केवल 'काम' (sex) हेतु ही नर-नारी के मिलन जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि "अर्थ", "धर्म" व "मोक्ष" के लिए भी दोनों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक होता है। जब कोई पुरुष पूजा, उपासना, हवन या यज्ञ करता है, तो उसकी धर्मपत्नी का साथ बैठना आवश्यक होता है। जब त्रेतायुग में भगवान राम ने अश्वमेध यज्ञ किया था, तो उनकी पत्नी सीता को साथ बैठाए बिना यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सका। किन्तु वे तो सीता को एक प्रजा (धोबी) के उलाहने मात्र से त्याग चुके थे। अतः उन्हें स्वर्ण से निर्मित सीता जी की मूर्ति को साथ में बैठा कर अश्वमेध यज्ञ पूरा करना पड़ा।

विद्युत ऊर्जा के भी मुख्यतः दो तार होते हैं। एक पोजिटिव(positive) दूसरा नेगेटिव(negative)। बिना दोनों तारों के मिलन के न तो कोई बिजली का बल्ब ही जल सकता है, न पंखा घूम सकता है। अकेले पोजिटिव तार कुछ कार्य नहीं कर सकता है।

मानव के मन में भी सकारात्मक और नकारात्मक विचारों रूपी दो प्रकार की ऊर्जाएँ होती हैं। जिस प्रकार एक ब्लेक होल कई सूर्यों को भी निगल सकता है। उसी प्रकार संसार भर में मानव के मन में नकारात्मक विचारों की तीव्र तरंग भी अनेकानेक सकारात्मक या अच्छे विचारों को निगल जाती है। आज संसार में नकारात्मक विचारों का बोलबाला है। जिसके कारण हर कहीं अन्याय, अत्याचार और विध्वंश फैल रहे हैं। हर कहीं आतंकवाद फैल रहा है।

सृष्टि के आदिकाल से पृथ्वी पर देव-दानव संघर्ष चलता आया है। अनन्तः देवताओं की विजय होती है। लेकिन समुद्र मंथन के लिए देवता और दानव दोनों की जरूरत होती है। अकेले देवता समुद्र को मंथन नहीं कर सकते थे। न तो अमृत और न ही हलाहल निकल सकता था।

वास्तव में होना यह चाहिए कि समस्त नकारात्मक शक्तियों को सकारात्मक शक्तियों के नियंत्रण में रहना चाहिए। तभी संसार के समस्त मानव, प्राणी, जड़ वस्तुएँ अपनी सीमा में संयत व नियंत्रित रह सकती हैं। संसार का संचालन संतुलित रूप से हो सकता है। लेकिन आज संसार में नकारात्मक विचारधाराएँ रूपी विष पूरा व्याप्त हो गया है। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई भगवान शंकर फिर से अवतरित हो कर इस हलाहल का पान कर अपने कंठ में अटका कर नियंत्रण में ले लें।

सचमुच ऊर्जा का संसार अत्यन्त रहस्यमय है। आज आवश्यकता है कि केवल सकारात्मक आवेश वाली ऊर्जा को ही नहीं बल्कि नकारात्मक आवेश वाली ऊर्जा को भी सृजनात्मक कार्य में लगाया जाए।

बिना नकारात्मक ऊर्जा के भी संसार नहीं टिकता। केवल मीठा खाकर जिस पर हम नहीं जी सकते, नमकीन, खट्टे व अन्य स्वाद की भी जरूरत होती है, उसी प्रकार जीवन सुख-दुःख का संगम है। सिर्फ आवश्यकता इस बात की है कि नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जाओं का परस्पर उपयुक्त संतुलन (balance) कैसे बैठाया जाए।

हर इन्सान में कुछ विशेष खूबियाँ या गुण होते हैं तो कुछ अवगुण या कमियाँ भी अवश्य होती हैं। उसे वह काम दूसरों के सहयोग के करने पड़ते हैं, जो वह स्वयं नहीं कर सकता। इसी प्रकार वह जिस काम में पारंगत होता है, दूसरों को अपने हुनर से मदद करता है। जिस प्रकार एक अन्धा व्यक्ति अपने कन्धे पर लूले-लंगड़े व्यक्ति को बैठा कर चलता है, दोनों मिलकर जीवन-यापन कर लेते हैं, इसी प्रकार आपसी तालमेल या सन्तुलन से सफलता हासिल की जा सकती है। अतः इन्सान को न तो कभी घमण्ड करना चाहिए और न ही कभी हीनभावना का शिकार होना चाहिए। अपनी खूबियों और कमियों दोनों की पहचान कर समन्वित प्रयास करना चाहिए। अभिमान त्यागना किन्तु स्वाभिमान धारण किए रहना -- यही सफलता का रहस्य है।

सभी सिद्धियों का सार है नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जाओं का संतुलन बनाए रखना।

2 comments:

अनिल रघुराज said...

विज्ञान और दर्शन का अद्भुत मेल है आपका लेख। आपने एकदम सही लिखा है : सचमुच ऊर्जा का संसार अत्यन्त रहस्यमय है। आज आवश्यकता है कि केवल सकारात्मक आवेश वाली ऊर्जा को ही नहीं बल्कि नकारात्मक आवेश वाली ऊर्जा को भी सृजनात्मक कार्य में लगाया जाए।

हरिराम said...

अनिल जी, आपकी टिप्पणी के लिए आभार!

किन्तु पोजिटिव तार में जहाँ 220 वोल्ट की विद्युत धारा होनी अपेक्षित, वहीं नेगेटिव में सिर्फ 5 से 14 वोल्ट तक की ही। अर्थात् नकारात्मकता आटे में नमक के बराबर होनी चाहिए। किन्तु आज संसार में नकारात्मक आवेश सकारात्मक से अधिक हैं, यही समस्त गड़बड़ी का कारण है।