24 May 2007

तपती गर्मी में बहुमंजिली इमारतों को शीतल रखने का सरल उपाय...


तपती गर्मी में बहुमंजिली इमारतों को शीतल रखने का सरल उपाय...

तपती गर्मी में मकानों को ठण्डा रखने के कुछ उपाय पिछले लेखों में बताए गए थे। कई लोगों ने प्रश्न किया था कि बहुमंजिली इमारतों में, जहाँ लोग फ्लैट्स में रहते हैं। उनके पास बागवानी के लिए पर्याप्त स्थान नहीं होता। सिर्फ बालकोनी में दो-चार गमले रखे जा सकते हैं। वहाँ बाहरी दीवारों को धूप से बचाकर ठण्डा रखने का कोई सरल उपाय नहीं है? पेड़ पौधों के द्वारा गगनचुम्बी इमारतों को ठण्डा कैसे रखा जाए?

इसका यह जबाब सुनकर आश्चर्य होगा कि बहुमंजिली इमारतों पर लताएँ लहराकर शीतल रखना तो और भी ज्यादा सरल और सस्ता है। कैसे?

बहुमंजिली इमारतों को धूप से बचाकर ठण्डा रखने का एक सरल उपाय है कि हर फ्लैट की बालकोनी में दो चार गमले रखें, जिनमें लताओं के पौधे उगाएँ। इन लताओं को ऊपर की ओर चढ़ाने के लिए रस्सी आदि का सहारा लगाने में बेकार परिश्रम और धन खर्च करने की भी कोई जरूरत नहीं है। इन्हें नीचे लटकने दें। ये लताएँ अपने आप नीचे की ओर लटक फैलेंगी और नीचे के फ्लैट्स की दीवारों पर आच्छादित होती चली जाएँगी।

सबसे ऊपर की मंजिल में रहनेवाले यदि कुछ बड़े आकार के गमले में लताओं के पौधे उगाएँ और उपयुक्त खाद पानी देते रहें तो ये लताएँ लटक कर निचली मंजिल तक स्वतः फैल सकती हैं।

बहुमंजिली इमारतों की छत पर मुँडेर के किनारे कुछ बड़े गमले रखे जाएँ। यदि 3 फीट व्यास वाले कंक्रीट की नाँद के गमले हों तो उत्तम है। इनमें लताएँ के पौधे उगा दिए जाएँ और इन्हें मुँडेर पार करके अपने आप नीचे की ओर लटक कर फैलने दिया जाए। इससे लताओँ के झुरमुटों को ऊपर चढ़ाने में कोई परिश्रम और खर्च भी नहीं करना पड़ेगा। लताओँ के पत्ते धूप को सोखकर अपना विकास करने में उपयोग करेंगे और तथा इनके फूल सुगन्ध भी फैलाएँगे और रंग-बिरंगी शोभा भी बढ़ाएँगे। लेकिन आवश्यकता है बहुमंजिली इमारतों के सभी फ्लैट्स में रहनेवालों को मिलकर प्रयास करने की।

ऊपर से नीचे लटकी हुई लताओं के तने पुराने होने पर मजबूत रस्सी जैसे हो जाते हैं। नीचे धरती में लताएँ उगाकर भी इनके सहारे बिना परिश्रम के ऊपर चढ़ाकर आच्छादित किया जा सकता है।

ऐसी लताओं में एक सबसे लोकप्रिय है मनी प्लाण्ट। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है -- यह घर में धन तथा समृद्धि बढ़ानेवाली लता मानी जाती है। अनेक लोग इसे वास्तु अनुकूल मानते हैं। घर में सुख-शान्ति बढ़ानेवाला मानते हैं। तथा पानी की बोतलों में, गमलों में उगाते हैं। कुछ लोग तो ड्राईंग रुम में भी इसे उगाते हैं। इसके लिए कोई विशेष रख-रखाव की जरूरत नहीं पड़ती। सिर्फ पर्याप्त पानी मिले तो यह अपने आप फैलते जाती है।

मनी प्लांट की बेल का एक टुकड़ा तोड़कर एक सिरा सिर्फ पानी में डुबा कर कुछ दिन रखने से स्वतः जड़ें निकल आती है और पौधा विकसित होने लगता है। इसके कोई फूल, फल या बीज नहीं होते। किन्तु ठण्डक फैलाने में यह बहुत प्रभावी होता है।

अन्य लताओं में मालती, मल्ली (चमेली-लता), जास्माइन, श्वेत व नीली अपराजिता, भृंगराज, कन्नैर-लता, राधा-तमाल, बेगुनिया-बेनसर, जूही-जाई... इत्यादि प्रमुख हैं, जिनसे बहुमंजिली इमारतों को अच्छादित किया जा सकता है। ओड़िशा के कुछ स्थानों में "पोई" नामक एक विशेष लता को लोग शौक से उगाते हैं, जिसके पत्तों तथा डण्खल की स्वादिष्ट सब्जी बनती है। इसमें कई विटामिन, खाद्य लवण अधिक मात्रा में होते हैं। कोई कीड़ा काट लेने पर जलन या खुजली आदि होने पर इसके पत्ते को मसलकर रस लगा देने से कुछ ही मिनटों में अद्भुत राहत मिलती है।

इस तरह लताएँ नीचे लटका कर बहुमंजिली इमारतों को शीतल रखना सबसे सरल और पर्यावरण अनुकूल उपाय है।

23 May 2007

तपती गर्मी से मकान बचाएँ और बिजली भी बनाएँ...

तपती गर्मी से मकान को बचाएँ और बिजली भी बनाएँ...

मेरे पिछले लेख तपती गर्मी में भी मकान को रखें ठण्डा
में कुछ उपाय बताये गए थे। यहाँ प्रस्तुत है एक और दोहरे लाभ वाला उपाय।

आज का सभ्य समाज बिजली का गुलाम बन चुका है। बिजली (Electricity) के बिना पानी तक नहीं मिल पाता। क्योंकि बिजली के मोटर-पम्प से ही पानी ऊपर उठाया जाता है। कम्प्यूटर और इण्टरनेट तो बिना विद्युत के बेजान हैं। गर्मियों में बिजली कटौती की समस्या आम बात है। बिजली कटते ही लगता है जैसे धर्मराज के दरबार में पहुँच गए हैं अपने सारे पापों की सजा भुगतने के लिए। हमें गर्म तेल की कड़ाही में डाल कर तला जा रहा है।

मकान की छत पर पड़नेवाली धूप की गर्मी से मकान को बचाने के लिए एक अच्छा उपाय यह भी है कि मकान की छत पर उपयुक्त आकार के फोटोवॉल्टिक सेल वाले सोलर पैनल लगा दें, जो सूर्य के प्रकाश को विद्युत में बदलकर बैटरी को चार्ज करते रहें। बिजली कटौती के वक्त आप इससे घर में बल्ब या पंखे चला सकेंगे।

खर्च बचाने के लिए यदि बैटरी नहीं भी खरीदें, तो कम्प्यूटर का यू.पी.एस. तो चार्ज कर ही सकते हैं, जिससे कम्प्यूटर और इण्टरनेट तो चला ही सकेंगे। और अपने ब्लॉग पर लेख, कहानी, कविता, व्यंग्य आदि लिखकर समय तो बिता ही सकेंगे और साथ ही अपने महत्त्वपूर्ण विचारों से जगत को अवगत करा सकेंगे।

अगर आपकी छत 1000 वर्ग फुट की है और इसके आधे 500 वर्गफुट के सोलर पैनल लगाएँ जाएँ तो शायद आपकी कुल बिजली की आवश्यकता का आधा हिस्सा सूर्य के प्रकाश से ही सृजित किया जा सकता है। प्रति माह बिजली के बिल में तो आधी कटौती हो सकेगी।

है ना दोहरा लाभ। गर्मी से भी मकान रहेगा कुछ ठण्डा और विद्युत की जरूरत भी होगी पूरी। आम के आम, गुठली के भी दाम।

हालांकि अभी सोलर पैनल कुछ महंगे अवश्य हैं। लेकिन गैर-परम्परागत ऊर्जा विभाग द्वारा इनमें लगभग 50% की सबसिडी/अनुदान दिया जाता है। अर्थात् आधे दाम में मिलते हैं। आदित्य सोलर, गायत्री सोलर, टाटा सोलर आदि कई संस्थाओं के सोलर पैनल बाजार में उपबल्ध हैं। लेकिन कई स्थानों पर इनकी खरीदी पर सबसिडी सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में लगाने के लिए ही दी जाती है। लेकिन कई लोग अपने गाँव के पते पर लगाने के लिए खरीद कर शहर के मकान की छत पर स्थापित कर लेते हैं।

सोलर पैनलों की कोई खास रख-रखाव, मरम्मत आदि की भी जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि बैटरी तथा इन्वर्टर सर्किट यूनिट आदि की अवधिवार जाँच करना तथा बदलना पड़ सकता है। सोलर पैनल एक परिष्कृत तथा प्रदूषण रहित ऊर्जा सृजन का माध्यम है। यदि समग्र पृथ्वी पर पड़ने वाली सूर्यकिरणों के दस प्रतिशत का भी उपयोग किया जाए तो समग्र विश्वि की बिजली की आवश्यकता पूरी की जा सकती है। तथा अति विशाल परिमाण में विद्युत सृजन के लिए खपत होनेवाले कोयला, पेट्रोलियम आदि की भारी बचत हो सकती है।

सोलर पैनलों की स्थापना करना सदा लाभजनक ही होता है। हालांकि एकबारगी खर्च कुछ ज्यादा अवश्य लगता है, किन्तु दो वर्ष में इनकी लागत का निवेश व्यय बिजली के बिल में होनेवाली कटौती से लगभग पूरा हो सकता है।

विभिन्न प्रकार के उपलब्ध होनेवाले सोलर पैनलों में आभासी त्रि-आयामी होलोग्राम तकनीकी पर आधारित "इनवर्टेड पिरामिड" आकार के सर्किट-डायग्राम वाले पैनल सर्वाधिक ऊर्जा प्रदान करते हैं तथा सबसे कुशल होते हैं।


22 May 2007

तपती गर्मी में भी मकान को रखें ठण्डा...

तपती गर्मी में भी मकान को कैसे रखें ठण्डा...

धरती की गर्मी बढ़ती जा रही है। ग्लोबल वार्मिंग की कहर से सारा संसार त्रस्त है। विशेषकर शहरों में तो कंक्रीट की छतों वाले पक्के मकान होते हैं, जिनमें रहनेवालों की हालत बहुत बुरी हो जाती है।

मकानों को गर्मियों में ठण्डा रखने के निम्नलिखित उपाय अपनाए जा रहे हैं।

(1) ए. सी. लगाना

धनी लोग मकान के कुछ कमरों में वातानुकूलन (Air Conditioner) लगा कर ठण्डक पा लेते हैं। अधिकांश कार्यालय भवन सेण्ट्रली एयर कण्डीशण्ड होने लगे हैं। बड़ी दुकानें, शो-रूम आदि एयर कण्डीशण्ड होना तो आज की संस्कृति बन गया है। कारें, बसें, रेलगाड़ियाँ में भी ए.सी. लगे होते हैं। अब एयर कण्डीशण्ड हेलमेट भी आ गया है बाजार में। मध्यम वर्ग के हर घर में एयर कूलर तो लगभग आम रूप से पाया जाता है।

बिना एयर कण्डीशनर लगाए अपने मकान को ठण्डा रखने के भी कई उपाय हैं।

(2) छत पर ग्लेज्ड सेरामिक टाइल बिछाना

कंक्रीट की छत को धूप की गर्मी सोखकर गर्म होने से बचाने के लिए एक अच्छा उपाय है कि छत के आँगन में सफेद ग्लेज्ड (चमकदार, चिकनी) सेरामिक टाइलें बिछा दी जाएँ, जिससे धूप परावर्तित हो (reflect) हो जाए, ताप छत से होकर मकान के अन्दर न फैलने पाए। बड़े बड़े कोर्पोरेट घरानों के कार्यालय भवनों पर ऐसा ही किया गया है। हालांकि यह काफी महंगा सौदा है।

(3) छत पर ग्लेज्ड सेरामिक टाइलों के टुकड़ों का आँगन

इससे कुछ सस्ता उपाय है 'सेरामिक टाइल्स' विक्रेताओं के पास से टूटी-फूटी ग्लेज्ड टाइलों के रद्दी टुकड़े इकट्ठे करके ले आएँ। कुछ विक्रेता टूटी-फूटी टाइलें कूड़े में फेंक देते हैं। कुछ विक्रेता ऐसे रद्दी टुकड़े 50 रुपये प्रति बोरी की दर से भी बेचने लगे हैं। इन टुकड़ों को छत पर सफेद सीमेण्ट के गारे पर यथासंभव पास-पास बिछाकर इनके बीच में सफेद सीमेण्ट का गारा भर कर समतल करके जमा दें। इस विधि से लगभग 80 से 90 प्रतिशत तक धूप परावर्तित हो जाएगी। गर्मी घर के अन्दर प्रवेश नहीं करेगी।

(4) छत पर सफेद चमकीले चूने का लेप करना

आजकल की रंग रोगन कम्पनियों द्वारा शीतल चूना (Sun cooling lime) उपलब्ध कराया जा रहा है जो हार्डवेयर दुकानों में मिलता है। यह महीन तथा चमकदार होता है जो सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर देता है। इस श्वेत रंगरोगन के लेप को मकानों की छत तथा बाहरी दीवारों पर लगाया जाता है, जिससे धूप की गर्मी दीवारों को भेदकर मकान के अन्दर फैल नहीं पाती और अन्दर से मकान अपेक्षाकृत ठण्डा रहता है।

किन्तु यह सफेद रंग कुछ दिनों के बाद मैला हो जाता है। विशेषकर छत पर धूल जमा होने तथा वर्षा से धुलने आदि कारणों से छूट जाता है। अतः यह एक अस्थायी उपाय है।

उपरोक्त सभी उपाय़ भले ही मकान के अन्दर ताप को फैलने से रोकते हैं, किन्तु बाहर के वातावरण की गर्मी बढ़ाते ही हैं। ए.सी. यन्त्र गर्म हवा को बाहर फेंकता है तथा इसके निकास से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक गैसें भी निकलती है।

अतः तलाश है ऐसे उपायों की जिससे मकान की ठण्डा रहे और वातावरण में भी गर्मी नहीं फैले। बल्कि वातावरण की गर्मी को भी सोखने में मदद करे।

(5) छत पर पुआल बिछाना

गर्मी के दिनों में कुछ लोग अपने मकान की कंक्रीट की छत या टिन या एजबेस्टस की छत पर पुआल बिछा देते हैं, जो गर्मी को सोख लेता है तथा न तो अन्दर फैलता है और न ही बाहर छितराता है।

(6) छत पर मोटे पत्तों वाले पौधों के गमले रखना

सबसे अच्छा उपाय है गर्मी के दिनों में अधिकाधिक संख्या में यथासंभव मोटे पत्तों वाले पौधों के गमले रखकर मकान की छत को अधिकाधिक भर दें। ये पौधे धूप को अधिकाधिक सोख लेंगे तथा न तो छत से होकर मकान के अन्दर गर्मी नहीं फैलेगी न ही बाहर वातावरण में फैलेगी।

(7) मकान की छत और दीवारों लता-गुल्म आच्छादित करना।

इससे भी सस्ता और सरल उपाय है कि कंक्रीट की छत पर कुछ बड़े गमले रखें, जिनमें मोटे पत्तों वाली लताओं के पौधे उगा दें। बाँस, टहनियों, रस्सी की जालियाँ बनाकर इनके ऊपर बेलों को चढ़कर फैलने दें। सुन्दर, सुगन्धित फूलों व पत्तों वाली बेलें आच्छादित होकर न केवल आपके मकान का सौन्दर्य बढ़ाएँगी, बल्कि मकान के साथ साथ वातावरण को ठण्डा रखने में भी भरपूर मदद करेंगी।

एक तल या दो तल्ले वाले मकानों में तो नीचे जमीन में सिर्फ एक फुट भर की जगह में भी बेल उगाई जा सकती हैं, तथा बाँस तथा रस्सी के सहारे इसे छत पर चढ़ाकर फैलाया जा सकता हैं। टिन, एजबेस्टस, खपरैल, टाइल आदि की छतों पर कुछ पुआल डालकर उसपर बेलें लहराई जा सकती हैं। लताएँ दीवारों पर लहराने से दीवारें भी गर्म होने से बचती हैं और फूलों वाली लताएँ हों तो सौन्दर्य भी बढ़ाती हैं।

कुछ लोगों ने तो अपने मकान की छत पर बाँस, टहनियों और रस्सियों की जालियों पर लौकी, तुरई, ककड़ी, सेम, बीन.. आदि सब्जियों की बेलें चढ़ाकर लहरा रखीं हैं, जो न केवल मकान तथा वातावरण को ठण्डा रखती हैं, बल्कि आवश्यक परिमाण में सब्जियाँ की फसल भी प्रदान कर रही हैं। कुछ लोगों ने मूल्यवान औषधीय हर्ब "पीपल" की लताएँ फैला रखीं हैं। ये न केवल बचत करती हैं, बल्कि कुछ लोग इन सब्जियों को बेचकर कुछ कमाई भी कर लेते हैं।

(8) छत पर पुदीना उगाना

जिन कंक्रीट की छतें अनुकूल ढलान के साथ निर्मित हैं, अर्थात् जिन पर पानी अटकता या जमा नहीं होता हो, वे लोग अपने मकान की छत पर सिर्फ रेत बिछा कर उसमें पुदीना उगा सकते हैं। पुदीना गर्मियों की फसल है, गर्मियों में तेजी से फैलता है। पुदीना न केवल मकान तथा वातावरण में ठण्डक फैलाएगा, बल्कि शर्बत, चटनी, औषधि आदि बनाने में भी काम आएगा। पुदीना का पौधा उगाने में कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। सिर्फ बालू या रेत में इसके पौधे के एक एक डण्खल एक एक इञ्च की दूरी पर रोप दें और रोजाना सुबह शाम पानी से सींचते रहें। इसकी बेलें निकल कर फैलने लगेंगीं। रेत में थोड़ी गोबर की खाद मिलाएँ तो तेजी से बेलें बढ़ेंगी। इससे छत को भी कोई नुकसान नहीं होगा क्यों कि रेत में पानी नहीं जमेगा। साथ ही पुदीने की सुगन्ध से वातावरण महक उठेगा।

जिस मकान की छत पर्याप्त ढालू नहीं हो, वहाँ चौड़े-चौड़े गमलों या मिट्टी की परातों में पुदीना उगाया जा सकता है।

(9) छत पर वास्तु अनूकल शुभ वनस्पतियाँ उगाना।

अनेक लोग अपने मकान की छत पर वास्तु अनुकूल पौधें और बेलें उगाते तथा फैलाते हैं, जिससे मानसिक शान्ति ही नहीं मिलती, बल्कि समृद्धि भी आती है।

रोजाना थोड़ा सा समय निकाल कर अपने घर की छत पर बागवानी में लगाएँ, तो न केवल हमारा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहेगा, बल्कि आसपास का वातावरण भी शीतल और सुखद होगा।

इस प्रकार मकान को गर्मी से न बचाया जा सकता है, बल्कि यथासम्भव बचत और अर्थोपार्जन भी किया जा सकता है। प्रकृति के साथ जीने में ही मानव को सच्चा सुख और शान्ति मिल सकते हैं।

5 May 2007

बायो डीजल भी... मिलावट/मुनाफ़ाखोरी की चपेट में...

भारत में भी अब डीजल के सस्ते वनस्पतीय विकल्प 'बायो-डीजल' की पैदावार काफी मात्रा होने लगी है। किन्तु आम जनता को यह सस्ता विकल्प उपलब्ध नहीं हो पाता है। इतनी मात्रा में उत्पादित बायो डीजल कहाँ चला जाता है?

कुछ घटनाओं देखा गया है कि कुछ 'बायो-डीजल' उत्पादक इसको आम जनता को न बेचकर सीधे पेट्रोल पम्पों मालिकों को ही (18 से 25 रुपये प्रति लीटर की विविध दर पर) बेच देते हैं। पेट्रोल पम्प प्रबन्धक इसे सीधे पेट्रोलियम वाले सामान्य डीजल की टंकी में ही मिला देते हैं और सामान्य डीजल के निर्धारित महंगे मूल्य (लगभग 37 रुपये प्रति लीटर) पर बेचते हैं और मिलावट कर अतिरिक्त मुनाफाखोरी करते हैं।

राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के कुछ ग्रामीण स्थानों में बायो-डीजल 18 से 26 रुपये प्रति लीटर की विविध दरों पर मिल जाता है। लेकिन सामान्यतया देश के अन्य स्थानों पर इसके दर्शन तक नहीं होते।
लेले जी के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कम्पनियों ने बायो-डीजल का मूल्य 25 रुपये प्रतिलीटर की घोषणा की है। भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी ने राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डेन में भी इसके पौधे लगवाए हैं। इसकी खेती करके देश में जगंली आदिवासी पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आय के अतिरिक्त स्रोत मिलने की आशा जहाँ एक ओर है, दूसरी ओर वहीं डी-वन ऑयल, रिलायन्स, गोदरेज एग्रोवेट, इमामी आदि बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती में जुट चुकी हैं, जिनसे प्रतियोगिता करना उन गरीब आदिवासियों के लिए सम्भव नहीं होगा।

भारत में बायो-डीजल की बड़े पैमाने पर खेती होने लगी है। केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों द्वारा भी इसके उत्पादन के लिए विभिन्न व्यक्तियों, संस्थाओं और समुदायों को प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं, जमीन उपलब्ध कराई जा रही है और आवश्यक बीज तथा तकनीकी जानकारी एवं अन्य प्रकार सहायता भी उपलब्ध कराई जा रही है। इसकी खेती का
भारतीय परिदृश्य विकसित होता जा रहा है।

बायो डीजल का अर्थ लोग सामान्यतः जैविक पदार्थों से उत्पन्न तेल समझ सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। बायोडीजल
जेट्रोफा नामक वृक्ष के फलों से निकला तेल होता है। जेट्रोफा का भारतीय नाम 'रतनज्योत' है। जेट्रोफा की हालांकि संसार में विविध प्रजातियाँ हैं तथा इससे बननेवाले डीजल की गुणता भी अलग अलग होती है।

विश्व भर में मोटरगाड़ियों, रेलगाड़ी, अन्य मशीनों तथा इंजनों आदि को चलाने के लिए मुख्य ईंधन पेट्राल एवं डीजल है, जिसकी मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है तथा इसके मूल्य भी तेजी से बढ़ते ही जा रहे हैं। अतः ईंधन के वैकल्पिक उपायों की तलाश भी की जा रही है। हालांकि अब एलपीजी, सीएनजी, बैटरी से भी चलनेवाली मोटरगाड़ियों के मॉडल बाजार में आ गए हैं, किन्तु पेट्रोल एवं डीजल का पूर्ण विकल्प नहीं बन सके हैं। पेट्रोलियम पदार्थों के भण्डारों के विश्व से खत्म हो जाने तथा बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए नए संसाधनों की तलाश के फलस्वरूप जेट्रोफा की खोज हुई। ऊर्जा के अक्षय स्रोत के रूप में बड़ी आशा की किरणें मिली है बायो डीजल से।

जेट्रोफा के फलों को पेरने पर सीधे जो द्रव निकलता है, वह बिल्कुल डीजल तेल के जैसा होता है। इसे फिर से किसी प्रकार से संसाधित करने या साफ करने की जरूरत नहीं होती। सीधे डीजल से चलनेवाली मोटरगाड़ी, रेलगाड़ी या अन्य इंजनों में ईंधन के रूप में डालकर उपयोग किया जा सकता है। तथा सामान्य डीजल में मिलाकर भी इसका उपयोग किया जा सकता है।

जेट्रोफा या रतनजोत का पेड़ बंजर व पथरीली भूमि से उगता है तथा पनपता है, अतः इसकी खेती के लिए किसी कृषिभूमि का नुकसान नहीं उठाना पड़ता।

अप्रेल 2003 में भारत सरकार के योजना आयोग के तत्वावधान में बायो-ईंधन के विकास के लिए गठित एक
समिति ने विभिन्न प्रकार के अध्ययन करने के बाद रतनजोत की सिफारिश की थी और आशा व्यक्त की थी इस फसल को बढ़ावा देने से भारत की कुल डीजल की आवश्यकता का लगभग 20% तक इससे पूरा किया जा सकेगा। सुयोजित रूप से इसकी फसल को बढ़ाने पर सन् 2013 तक 1.3 करोड़ टन बायो-डीजल के उत्पादन की परिकल्पना की गई।

जेट्रोफा एक अखाद्य वनस्पति है, जिसे कोई पशु या जीव-जन्तु नहीं खाते। अतः इसकी फसल को जंगली जानवरों या कीड़ों आदि से सुरक्षा का कोई खतरा नहीं होता और कोई विशेष चहारदीवारी या बाड़ लगाने की व्यवस्था भी नहीं करनी पड़ती।

बायो-डीजल के उत्पादन के लिए अनेक समुदाय आगे आए हैं। जैव-प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए इसकी विभिन्न नई प्रजातियों के विकास के लिए भी अनुसन्धान कार्य जारी हैं, ताकि रतनजोत के फल से अधिक परिमाण में तेल निकल सके।

रतनजोत का पेड़ तीन वर्ष में फल देना शुरू कर देता है। शुष्क जलवायु में इसकी पैदावार अधिक अनुकूल होती है। पौधों के कुछ बड़े होने तक ही इसकी सिंचाई करनी पड़ती है। इसके पौधों को 2 से 3 मीटर की दूरी पर लगाने से पेड़ पूरा विकसित होता है और पैदावार अधिक मिल पाती है। बायो डीजल से परिवहन के क्षेत्र में ईंधन की समस्या का कुछ हद तक हल मिल सकेगा।

किन्तु आम उपभोक्ता को सस्ते मूल्यों में तो तभी मिल पाएगा, जब बड़ी बड़ी फर्मों और कम्पनियों के मालिक एवं प्रबन्धक मुनाफाखोरी और अधिक लाभ के 'लोभ' को "काम-क्रोध-लोभ.." में से एक पाप समझें।

2 May 2007

अगर बुद्ध जिन्दा होते... तो आत्महत्या कर लेते शायद...

अगर बुद्ध जिन्दा होते... तो आत्महत्या कर लेते शायद...

आज बुद्ध पूर्णिमा, बुद्ध जयन्ती है। देश भर में समारोह मनाए जा रहे हैं। भाषण-प्रवचन जारी हैं उनकी अहिंसा की शिक्षाओं पर।

किन्तु, व्यवहार में... विश्व में क्या हो रहा है?

आजतक विभिन्न राष्ट्रों द्वारा जितने बम, अणुबम बनाए जा चुके हैं, उतने में से समग्र पृथ्वी का कम से कम 70 बार सम्पूर्ण विनाश किया जा सकता है। दिनों दिन और भी नए नए परमाणु बम, रसायनिक बम, मिसाइलें, अन्तरिक्ष में उपग्रह-स्टेशन से धरती पर वार करनेवाले अग्निबाण इत्यादि का आविष्कार तथा परीक्षण जारी है।

आतंकवाद, माओवाद के अनुयायी हैं या यमदूत, जो यत्र-तत्र प्रकट हो सामूहिक प्राणों को मौत की पिटारी में बन्द कर ले जाते हैं। जाने-अनजाने में ही भ्रूण-हत्या से लेकर अपने ही परिवार के लोगों की हत्या तक के महापाप मानव काम-क्रोधादि से उन्मत्त होकर कर बैठते हैं। विभिन्न धर्म-मतावलम्बियों के बीच आपसी लड़ाई-झगड़ों में हजारों-लाखों जानें अकाल काल के गाल में चली जा रही हैं।

इतिहास में एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है...

वर्मा और थाईलैण्ड दोनों की बौद्ध-धर्मावलम्बी देश हैं। गौतम बुद्ध की एक मूर्ति के स्वामित्व को लेकर दोनों देशों के बीच नौ बार लड़ाई हो चुकी है, जिनमें हजारों लोग मारे गए... ...

यदि आज गौतम बुद्ध जीवित होते... तो आत्महत्या नहीं कर लेते? अपने ही अनुयायियों के ऐसे कर्म देखकर.. अपनी एक मूर्ति के लिए हजारों/लाखों को लड़कर मरते देखकर... अपनी शिक्षाओं का यों दुरुपयोग होते देखकर...

1 May 2007

श्रम शर्म नहीं...

श्रम शर्म नहीं...

(श्रमिक दिवस, एक मई,2007 पर विशेष)
श्रम और शर्म ये दोनों शब्द आपस में कुछ मिलते-जुलते लगते हैं। कुछ लोगों द्वारा अक्सर गलती से श्रम को शर्म और शर्म को श्रम लिख दिया जाता है। विशेषकर कम्प्यूटर में टंकण करते वक्त यह गलती हो जाती है। इसका कारण है इसके टंकण-क्रम की व्युत्पत्ति :-

श्रम = श+्+र+म

शर्म = श+र+्+म

बस सिर्फ एक हलन्त आगे-पीछे उलट-पलट लग जाए तो दोनों एक-दूसरे का रूप बदल लेते हैं।

किन्तु दोनों के अर्थ में बड़ा भारी अन्तर है। श्रम अर्थात् परिश्रम, मेहनत, मजदूरी और शर्म अर्थात् लज्जा(Shame)।

परन्तु आजकल इन दोनों के प्रयोग तथा व्यवहार के बीच भी उलट-पुलट, मिलावट और निकटता दिखाई देने लगी है।लोगों को परिश्रम करने में शर्म महसूस होती है। किसी पार्टी में देखते हैं कि लोग जूठे गिलास व थाली जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं, उन्हें उठाकर सही कूड़े-दान या जूठे बर्तनों के स्थान में रखने को छोटा काम समझकर उन्हें शर्म महसूस होती है। अपनी हैसियत से, अपने पद से नीचे का काम करने में लोगों को लज्जा आती है। लोग बेकार बैठे रहेंगे, इधर-उधर बतियाते रहेंगे, लेकिन लम्बित पड़े काम नहीं सलटायेंगे। यह बड़ी हानिकारक प्रवृत्ति है। व्यक्ति को परिश्रम करने में कभी शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए। बल्कि असदाचरण, व्याभिचार, भ्रष्टाचार, अधर्म या पाप करने में शर्म का अनुभव होना चाहिए।

जरूरत से ज्यादा मिलना हानिकारक है :-

एक सेठ जी अपना मकान-निर्माण करवा रहे थे। कई कारीगर और मजदूर काम कर रहे थे। एक मजदूर बहुत अच्छा काम कर रहा था। वह दूसरे मजदूरों की तुलना में तेजी से और ज्यादा काम कर रहा था। शाम को सेठ जी ने उस पर खुश होकर उसे उसकी 100 रुपये की दैनिक की मजदूरी के अलावा बीस रुपये और ज्यादा की मजदूरी दे दी। उन्होंने यह सोचा था पुरस्कार स्वरूप ज्यादा मजदूरी पाने पर वह अगले दिन और अच्छा काम करेगा। किन्तु घोर आश्चर्य! दूसरे दिन सेठ जी प्रतीक्षा करते रहे। किन्तु वह मजदूर काम करने ही नहीं आया। सेठ जी ने सोचा शायद किसी समस्या में पड़ गया होगा, थोड़ी देर से आएगा। काफी देर प्रतीक्षा के बाद भी वह नहीं आया। उसके न आने से सीमेण्ट-गारा मिश्रण आदि काम अटक गए। अन्य कारीगर और मिस्त्री भी बेकार बैठे रह गए। सेठ ने उसकी तलाश में उसके निवास पर दूसरे आदमी को बुलाने भेजा। किन्तु उसने लौटकर बताया कि वह मजदूर तो रात को ज्यादा शराब पीकर अब तक नशे में धुत्त होकर सोये पड़ा है। उसकी बीबी ने बताया कि वह नशे में बक रहा था-- "आज मजदूरी में बीस रुपये ज्यादा मिल गए हैं, आज पूरी बोतल भर शराब पीकर आराम करूँगा। आज काम करने नहीं जाऊँगा।"

उसकी प्रतीक्षा इतनी देर तक करते रहने से दूसरा कोई मजदूर भी नहीं मिला सेठ जी को। अन्य सारे मजदूर दूसरे काम करने निकल पड़े थे। उनका भारी नुकसान हुआ। उसके काम पर न आने के कारण गारा-ईंट आपूर्ति में बाधा पड़ी और दोनों मिस्त्री कारीगर भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाए। जितना काम उस दिन होना चाहिए था, उसका एक-चौथाई ही हो पाया काफी मुश्किल से। फिर भी कारीगरों को मजदूरी तो पूरी ही देनी पड़ी सेठ जी को। उनका लगभग 500 रुपये का नुकसान हो गया उस दिन।

सेठ जी को अपने दया की दुर्बुद्धि पर भारी पछतावा हुआ। उन्हें शिक्षा मिली कि जरूरत से ज्यादा मजदूरी देकर उन्होंने बड़ा पाप ही किया है। कुपात्र को दान देना महापाप होता है। वह धन का सदुपयोग करना नहीं जानता, इसलिए उसे ज्यादा मजदूरी देने वजाए उसकी मजदूरी से कुछ रुपये काट कर बकाया रख लेते तो वह मजदूर जरूर काम पर आता अपनी शेष मजदूरी लेने के लिए। तब से सेठ जी ने कारीगरों और मजदूरों की मजदूरी का कुछ अंश काट कर अपने पास रखकर जमा करना शुरू कर दिया और कहा कि मकान निर्माण का काम पूरा हो जाने के बाद ही आपकी कुल जमा मजदूरी और अपनी ओर से कुछ पुरस्कार स्वरूप रुपये मिलाकर दूँगा।

इसी प्रकार देखा जाता है कि आज लोग परिश्रम करने से जी चुराते हैं। वे लोग सिर्फ अपना ही नुकसान नहीं करते, बल्कि सम्पूर्ण समाज का भारी नुकसान करते हैं। राष्ट्रीय आय को बड़ा भारी नुकसान पहुँचाते हैं।

दूसरी ओर देखा जाता है कि कुछ बुजुर्ग लोग गाँधीवादी विचारधारा के होते हैं। वे रोजाना सुबह जल्दी उठकर सड़कों पर झाड़ू-बुहारी करते हैं। सड़क के बीच पड़े कूड़ा-करकट या कंकड़-पत्थर आदि उठाकर गली को मोड़ पर रखे कूड़ेदान में फेंक कर आते हैं। किन्तु ऐसे लोगों को युवावर्ग घृणा की नजरों से देखता है। उनका अपमान करता है। इसके विपरीत वे युवावर्ग अपने घर के आसपास भी सफाई करने की वजाए और ज्यादा कूड़ा फैलाते हैं। गन्दगी फैलती है, मच्छर, कीड़े-मकोड़ बढ़ते हैं और बीमारियाँ फैलती है।

एक घटना याद आ गई। एक पार्क में कुछ लड़कियाँ बैठी बतिया रहीं थी और मूँगफली खा रही थी। वे लड़कियाँ वहीं छिलके फेंके दे रही थी। उनमें सुनीता नामक एक लड़की छिलके मूँगफली के खाली ठोंगे में रखने लगी, सोचा वापस लौटते समय कूड़ेदान में फेंक देगी। किन्तु यह देखकर दूसरी लड़कियों ने उसका मजाक उड़ाया- "चली हो गाँधी जी की नानी बनने। फेंक यहीं। यह मेहतर का काम है, क्यों हमारी इज्जत बिगाड़ रही हो।"

अगली शाम को वे लड़कियाँ फिर पार्क में आईं और एक जगह घास पर बैठकर बतियाने लगीं। अचानक वे लड़कियाँ चीखकर उठी और छटपटाती हुई भागीं, अपने कपड़े झाड़ने लगी। चींटियों ने उनके शरीर पर चढ़कर कपड़ों के अन्दर घुसकर जहाँ-तहाँ काट-खाया था। कपड़े उतार कर झाड़ने के लिए उन्हें कहीं सही जगह भी नहीं मिली। पार्क में कुछ झाड़ियों के पीछे जाकर उन्हें जैसे-तैसे रो-रा कर चींटियाँ झाड़नी पड़ीं। दंश के दर्द से सिसकारते हुए, पछताते हुए वे सुनीता से बोलीं-- "कल तुम ठीक ही कर रही थी। हमने तुम्हें कूड़ा उठाकर कूड़ेदान में डालने से रोक दिया था। सचमुच हम जैसे लोगों ने, मूँगफलियाँ खाकर छिलके तथा कुछ खराब दाने यहीं फेंक दिए होंगे, जिनमें चींटियाँ लग गईं। हमें अच्छा दण्ड मिला। अब आगे से कभी भी जहाँ-तहाँ कूड़ा नहीं फेंकेंगे।"

एक और घटना है-- ग्लोबल वार्मिङ्ग बढ़ते देखकर एक अधिकारी ने सोचा कि सड़क किनारे की खाली जमीन में एक पीपल का पेड़ लगा दूँ तो ठण्डी छाया मिलेगी और शुद्ध ऑक्सीजन मिलने से प्रदूषण भी कम होगा। इसके लिए एक गड्ढा खोदने के लिए एक मजदूर से कहा। मजदूर ने इस काम के लिए पूरे 100 रुपये की मजदूरी मांगी। अधिकारी ने कहा कि गड्ढा खोदने में तो सिर्फ एक घण्टा भर लगेगा। 100 रुपये मजदूरी तो पूरे आठ घण्टे के दिन भर के काम की होती है। लेकिन कोई राजी नहीं हुआ। काफी देर तक प्रतीक्षा के बावजूद उस दिन कई मजदूर बिना कोई काम पाए वापस चले गए, लेकिन कुछ कम पैसे लेकर वह छोटा गड्ढा तक खोदने को राजी नहीं हुए। मजदूरों के सरदार ने उलटे सबको पट्टी पढ़ाई-- "भले ही बेकार रहें, भले ही भूखे रहें, लेकिन कम मजदूरी लेकर काम नहीं करेंगे।"

इस प्रकार देखा जाता है कि आजकल लोग श्रम और परिश्रम करने से कतराते हैं, अधिक आराम करना पसन्द करते हैं। सोचते हैं आराम करने से भूख नहीं लगेगी। लेकिन चाहे आप कुछ करो या न करो, चाहे सोये रहो, आपका पेट तो अपना काम अनवरत करता है। भूख तो लगेगी ही। यदि समय बेकार खोया, श्रम नहीं किया तो पेट को आहार कहाँ से मिलेगा। लोग अधिक आराम करके अपनी तोंद फुलाते हैं, मोटे होते हैं, बीमार पड़ते हैं। और अन्त में मोटापा घटाने व स्वास्थ्य रक्षा के लिए लाखों रुपये की दवाई खानी पड़ती है या दौड़ना या अन्य कठिन व्यायाम करना पड़ता है।

एक केन्द्रीय मंत्रालय के कार्यालय की एक घटना है। कार्यालय में बाहर से कोई एक अतिथि अधिकारी आए। वे सचिव महोदय से मिलने के लिए प्रतीक्षारत बैठे रहे। सचिव जी का चपरासी किसी काम से कुछ देर के लिए बाहर गया था। उनको प्यास लगी। उन्होंने पता लगाया कि पीने का पानी कहाँ है और वहाँ रखे जग से गिलास में स्वयं पानी निकालकर पीने लगे। इतने में चपरासी लौटा। उनके स्वयं पानी लेकर पीता देखकर क्रोधित हो गया और बोला-- "महोदय, आप क्यों मुझ गरीब के पेट पर लात मार रहे हैं। यदि आप जैसे अतिथि स्वयं पानी लेकर पी लेंगे, तो मेरी सेवा की क्या जरूरत रहेगी। मेरी तो नौकरी ही चली जाएगी। यह मेरा काम है। मैं अपना काम का अधिकार किसी दूसरे को नहीं दूँगा। मेरा काम किसी और को नहीं करने दूँगा।" उसने उनके हाथ से पानी का गिलास छीन लिया। उस पानी को फेंककर बड़े सलीके के साथ कूलर से ठण्डा पानी लाकर पीने को दिया। अधिकारी महोदय उस चपरासी का कर्म-प्रेम और कार्यालय की ऐसी कार्य-संस्कृति देखकर अभिभूत हो गए। कहा- सचमुच जहाँ अपने काम का ऐसा आदर हो, वह देश जरूर प्रगति करेगा।

प्रभु रामचन्द्र के राज्याभिषेक की कथा है। लक्ष्मण, शत्रुघ्न से लेकर सुग्रीव तक सब ने एक एक काम का दायित्व सम्भाल लिया था। हनुमान जी के लिए कोई काम नहीं बचा। वे अत्यन्त दुःखी हो गए। भगवान राम से शिकायत की। भगवान राम ने उन्हें दायित्व सौंपा कि वे प्रातःकाल जल्दी उठकर सिर्फ चुटकी बजाएँ। उनकी चुटकी की आवाज सुनकर ही वे सोकर उठेंगे। सुग्रीव आदि सभी सेवक हनुमान जी का मजाक उड़ाने लगे कि उनको सिर्फ चुटकी बजाने का छोटा-सा काम मिला है। जबकि उन्हें बड़े दायित्व। बड़े शर्म की बात है।

हनुमान जी भी दुःखित होकर रूठ गए। उन्होंने अगले दिन प्रातःकाल चुटकी नहीं बजाई। भगवान राम सोकर ही नहीं उठे। सब लोग उन्हें जगाते-जगाते थक गए। सारे उपाय करके हार गए। पूरा एक प्रहर बीत गया। राज्याभिषेक के मुहूर्त के बीत जाने की आशंका हो चली। यह देख कर गुरु वशिष्ठ जी बुलाया गया। वे सारी बात समझ गए। उन्होंने रूठे हनुमान जी को मनाया और चुटकी बजाने की विनती की। जब हनुमान जी ने चुटकी बजाई तभी भगवान राम जागे।

इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। हर काम का अपना-अलग महत्व है तथा हर कर्मचारी का काम विशेष है। कोई किसी का विकल्प नहीं बन सकता। अतः कर्मक्षेत्र में चाहे कोई चमार हो, चाहे कोई जमादार हो, या चाहे कोई मंत्री हो, सबका अपना अपना विशेष महत्व है।

आजकल भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के दौर में अनेकानेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश में पैर जमा चुकी हैं। सड़कें तक मशीनों से, डोजरों से बनने लगी है... कम्प्यूटर के माध्यम से अनेक लोगों का काम एक आदमी कर लेता है। नमक से लेकर चाय जैसी छोटी मोटी रोजमर्रा की वस्तुएँ भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा बनाई जाती हैं और बेची जाती हैं। गांधी जी की स्वराज, स्वदेशी वस्तुओं के ही उपयोग करने, चरखा चलाने, हर हाथ को काम... हर पेट को रोटी... की नीति गायब होती जा रही है। देश में बेकारी बढ़ रही है। बेकार व भूखे लोग नक्सलवाद और माओवाद तथा आतंकवाद का शिकार बन भयंकर समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं। धनी और ज्यादा धनी होते जा रहे हैं, गरीब और ज्यादा गरीब। जनसंख्या में भारी वृद्धि हो रही है। किन्तु गुणवत्ता(quality) की और गुणवान लोगों की कमी होती जा रही है।

ऐसी स्थिति में प्राचीन वैदिक तथा पौराणिक सूत्रों तथा चाणक्य के अर्थशास्त्र में वर्णित श्रम नीति-सिद्धान्तों के आधार पर आधुनिक नवीन श्रम-नीति के नए आयामों की खोज करके उन्हें लागू करना आवश्यक हो गया है। तभी मानव सभ्यता को विनाश की ओर बढ़ने से बचा कर नए सुखमय संसार की रचना सम्भव हो पाएगी।