23 Oct 2007

रावण-दर्शन हेतु उमड़ी भीड़ भारी

Crowd for seeing raavana
रावण-दर्शन हेतु उमड़ी भीड़ भारी

इस बार भी दशहरे की शाम को रावण-दर्शन के लिए लोगों की जितनी भारी भीड़ दिखाई दी, उतनी देवी-दुर्गा के दर्शनों के लिए नहीं।

दिन के समय में ही बच्चे अपने अपने माता-पिता के पीछे पड़े थे-- “रावण का विशाल पुतला पूरा बन गया होगा, चलो हमें दिखाकर लाओ ना..." बच्चों को ही नहीं, बड़े-बूढ़ों को भी रावण के दर्शन करने का जितना शौक चढ़ा उतना तो विभिन्न पूजा-पण्डालों में देवियों के दर्शन के लिए नहीं।

सचमुच आज रावण का महत्व जितना है, उतना राम का या सीता का नहीं। हर साल रावण की ऊँचाई बढ़ाई जाती है। जलाया जाता है उसके पुतले को। ताकि वह हर साल अधिक शक्तिशाली होकर पुनर्जन्म ले।

“रावण-दहन” के साथ विभिन्न स्थानों पर होनेवाली रंगारंग आतिशबाजी मुख्य आकर्षण होती है बच्चों तथा बड़े-बूढ़े सभी लोगों के लिए। अल्पकाल की ही सही, जितनी खुशी इन पटाखों, खिलौना बमों की कानफाड़ू आवाजें तथा आकाशीय चमचमाती रोशनी देती है, उतना लोगों के मनोरंजन के लिए काफी है। विशेषकर आकाश में उड़ते राकेट, उनसे फूटते बम-पटाखे, गिरते सितारों की मालाएँ, छतरियाँ, पैराशूट लोगों के आकर्षण का विशेष केन्द्र होते हैं।

घण्टों पहले से लोग “रावण के पुतले” के आसपास जमा होकर जगह घेर लेते हैं। देर होने से खड़े होने की भी जगह नहीं मिलेगी- यह सोचकर।

और फिर ऐसे मौकों पर भीड़ को सम्बोधित करते हुए भाषण देने के लिए राजनेताओं को जो मौका मिलता है, उसका वे पूरा पूरा फायदा उठाते हैं। विभिन्न स्थानों पर “रावण-दहन” कार्यक्रम के आयोजक मुख्यमन्त्री, वित्तमन्त्री या किसी न किसी राजनेता के कर-कमलों से रावण-दहन करवाते हैं। राजनेतागण शायद जानबूझ कर निर्धारण समय से एक-डेढ़ घण्टा देर से पहुँचते हैं। ताकि जनता प्रतीक्षा का मजा ले सके! चाहे छोटे छोटे बच्चे रावण-को जलते देखने के लिए कितनी ही देर तक भीड़ में दबते-खुचते परेशान हों! चाहे महिलाएँ भीड़ में “आधुनिक नवयुवा" रावणों की तीखी नजरों तथा आक्षेपों की शिकार बनें। चाहे कुछ लोग बेहोश हों। चाहे भीड़ पर जलते पटाखे गिरें। उन्हें तो बस भीड़ का पूरा पूरा लाभ अपने राजनैतिक कैरियर के लिए लेना है जो।

धन्य है, यह देश, जहाँ रावण लिए लोगों के दिलों में इतना लगाव है, इतना समर्पण है! धन्य है वह संस्कृति जिसमें “रावण" राम से ज्यादा प्यारा है, ज्यादा खुशियाँ देनेवाला है, भले ही जलकर ही हो, भले ही अल्पकाल की हो। धन्य है - दशहरे (या दशभरे) का यह अवसर!

17 Oct 2007

हिन्दुस्तान में हिब्रू, जापानी, फ्रेंच… है, पर हिन्दी नहीं

India has Hebrew, CJK, French… But not Hindi
हिन्दुस्तान में हिब्रू, जापानी, फ्रेंच… है, पर हिन्दी नहीं


हाल ही में मुझे वाराणसी तथा गोरखपुर के एक सप्ताह के दौरे पर जाना पडा, जो हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-केन्द्र माने जाते हैं। वहाँ अपनी ईमेल देखने तथा ब्राउजिंग के लिए कई इण्टरनेट कैफे के चक्कर लगाने पड़े। देखा कि उन कैफे के कम्प्यूटरों में हिन्दी संस्थापित ही नहीं है, जबकि हिब्रू, फ्रेंच, जर्मन, चीनी, जापानी सहित अनेक विदेशी भाषाएँ इनस्टॉल की हुई हैं। हिन्दी में ई-मेल देखने तथा भेजने की सुविधा किसी भी इण्टरनेट कैफे के कम्प्यूटरों में नहीं मिल पाई।

जब मैंने कैफे के मालिकों से हिन्दी की सुविधा के बारे में कहा तो कुछ ने आश्चर्य व्यक्त किया-- "क्या हिन्दी में भी ई-मेल हो सकती है?"

दूसरे ने जबाब दिया—"वाराणसी तो प्रसिद्ध सांस्कृतिक तथा पर्यटन-केन्द्र है। हमारे कैफे में तो अधिकांश विदेशी लोग आते हैं इण्टरनेट ब्राऊसिंग करने। उनकी मांग पर उनकी भाषाओं की सुविधा इन्स्टॉल की गई है। कई वर्षों से हम कैफे चला रहे हैं। किसी ने हिन्दी की सुविधा की मांग की नहीं की। आप ही पहले व्यक्ति हैं, जो हिन्दी में ईमेल की बात कह रहे हैं।"

एक कैफे में जहाँ विण्डोज एक्सपी वाला कम्प्यूटर लगा था। उसके मालिक से मैंने कहा कि मैं आपके कम्प्यूटर में युनिकोड हिन्दी की सुविधा को सक्रिय कर दूँगा, तो उन्होंने स्पष्ट इन्कार कर दिया—“ना बाबा ना, हम ऐसा नहीं करने देंगे। हिन्दी तो कोई भी नहीं माँगता। हमारा कम्प्यूटर खराब हो जाएगा, वायरस घुस जाएँगे। मेमोरी कोर्युप्ट हो जाएगी।"

गोरखपुर में एक कैफे में हिन्दी के नाम पर "आगरा" तथा "अंकुर" नामक 8बिट फोंट मात्र ही मिला। गीताप्रेस, गोरखपुर जो विश्वप्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक प्रकाशन संस्थान है। भक्ति-साहित्य को प्रकाशित कर सस्ते से सस्ते मूल्य पर उपलब्ध कराने की स्तुत्य सेवा अनेक वर्षों से करता आ रहा है। वहाँ भी युनिकोड हिन्दी(देवनागरी) के नाम से कोई परिचित तक नहीं मिला।

जब हिन्दीभाषी केन्द्रों के रूप में जाने-माने नगरों का यह हाल है, तो भारतवर्ष के शेष स्थानों का क्या हाल होगा? हिन्दीतर भाषी प्रदेशों में क्या हाल होगा?

हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में कम्प्यूटिंग की माँग ही नहीं होती। यदि लाखों में कोई एक माँग करता भी है तो कहीँ उपलब्ध नहीं होती। यदि कोई व्यक्ति उन कम्प्यूटरों में हिन्दी की सुविधा निःशुल्क सक्रिय करके देना चाहता है तो भी कोई ऐसा करने ही नहीँ देता।

तमिलनाडु के कई इण्टरनेट कैफे में तमिल-युनिकोड की सुविधा पाई जाती है। कर्णाटक, बैंगलोर के भी कुछेक इण्टरनेट कैफे के कम्प्यूटरों में कन्नड़-युनिकोड इन्सटॉल पाए जाते हैं। बंगाल (यथा-कोलकाता) के कुछे इक्के-दुक्के इण्टरनेट कैफे के कम्प्यूटरों में बँगला-युनिकोड सुविधा इन्सटॉल पाई जाती है। किन्तु ओड़िशा, पंजाब, गुजरात, आन्ध्र तथा अन्य प्रान्तों के अधिकांश इण्टरनेट कैफे के कम्प्यूटरों में वहाँ की प्रान्तीय भाषाओं तथा हिन्दी का नामोनिशान तक नहीं मिलता। आम जनता तो यही समझती है कि कम्प्यूटर केवल अंग्रेजी में ही चलते हैं।

क्या केन्द्र या राज्य सरकारों के स्तर पर ऐसा कोई हुक्म नहीं जारी किया जा सकता कि भारत में प्रयोग हेतु आपूर्ति किए गए सभी कम्प्यूटरों के आपरेटिंग सीस्टम्स में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की सुविधा डिफॉल्ट रूप में स्वतः संस्थापित मिले?

16 Oct 2007

देवनागरी “श” का रहस्य

Secrets of Devanaagarii Sh
देवनागरी “श” का रहस्य


गूगल हिन्दी चिट्ठाकार चर्चा समूह में देवनागरी लिपि के "श" वर्ण तथा इससे बननेवाले संयुक्ताक्षरों के विविध रूपों के बारे में प्रश्नोत्तर एवं चर्चा चल रही हैं। चूँकि गूगल चर्चा समूह में सचित्र सोदाहरण उत्तर देना सम्भव नहीं हैं, अतः यहाँ समस्या का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।

"देवनागरी लिपि का क्रम-विकास" शोध से स्पष्ट होता है कि तालू में जीभ के टकराने के उत्पन्न उष्म ध्वनि अर्थात् तालव्य "श" का लिखित रूप प्राचीन शिलालेखों, ताड़पत्र की पोथियों, भोजपत्र में लिखित पाण्डुलिपियों में निम्नवत् उपलब्ध होता है। कालक्रम में जल्दी लिख पाने के प्रयास में विभिन्न महानुभावों की हस्तलिपि में इसका रूप निम्नवत् स्वतः परिवर्तित होता रहा--

चूँकि देवनागरी के संयुक्ताक्षरों को लिखने के लिए आरम्भ में ऊपर से नीचे का क्रम अपनाया जाता था। अर्थात् एक व्यञ्जन के नीचे दूसरा व्यञ्जन लिखकर संयुक्ताक्षर बनाया जाता था, इसलिए लिखने में रेखांकन क्रम की सुविधा के लिए चित्र का 11वाँ क्रम संख्या वाला स्वरूप उपयुक्त पाया गया।

लेकिन कई संयुक्ताक्षरों को लिखने के लिए बायें से दायें का क्रम अधिक सुविधाजनक होने के कारण श के अधिकांश संयुक्ताक्षर "श” की खड़ी पाई को हटाकर या आधा अक्षर बनाकर प्रयोग करना अधिक सरल महसूस किया गया। यथा-

श्क श्ख श्क श्घ श्ङ
श्च श्छ श्ज श्झ श्ञ
श्ट श्ठ श्ड श्ढ श्ण
श्त श्थ श्द श्ध श्न
श्प श्फ श्ब श्भ श्म
श्य श्र श्ल श्ळ श्व
श्श श्ष श्स श्ह

उपर्युक्त संयुक्ताक्षर विण्डोज के मंगल फोंट में डिफॉल्ट रूप से प्रकट होते हैं। इनमें से अधिकांश बायें से दायें के क्रम में श की खड़ी पाई को हटाकर बनाए गए हैं। किन्तु श्च श्न श्र श्ल और श्व ऊपर से नीचे के क्रम में बनाए गए हैं।

अक्षरों की स्पष्टता तथा सौन्दर्य विधान को दृष्टि में रखते हुए ऊपर से नीचे के क्रम के ये संयुक्ताक्षर आम जनता के सामान्य प्रयोग में बने रहे।

चूँकि हिन्दी मैनुअल टाइपराइटर में 48 कुञ्जियों के अन्दर हिन्दी भाषा के अक्षरों को येन-केन प्रकारेण सीमित करना पडा था। और फिर मैनुअल टाइपराइटर में ऊपर से नीचे के क्रम में संयुक्ताक्षर टाइप करना अत्यन्त दुष्कर कार्य होता इसलिए बायें से दायें क्रम को ही प्राथमिकता दी गई।

“श्च” को “श्‍च” रूप में टाइप किया जाने लगा।
“श्न” को “श्‍न” रूप में टाइप किया जाने लगा।
“श्ल” को “श्‍ल” रूप में टाइप किया जाने लगा।
“श्व” को "श्‍व” रूप में टाइप किया जाने लगा।

किन्तु “श्र” को "श्‍र” रूप में टाइप करना सरल होने के बावजूद प्रचलन में यह नहीं आ पाया, क्योंकि इससे पाठकों को उलझन होती। लोग इसे “रर” अर्थात दो “र” पढ़ लेते।

यदि “श” के नीचे "र-कार” की तिर्यक रेखा लगाकर “श्र” बनाया जाता (देखें चित्र में क्रम सं.8) तो र-कार आधे "श्" को काटकर पीछे निकलता। लोगों को पढ़ने में और ज्यादा उलझन होती।

और फिर भारतीय संस्कृति में संस्कृत का शुभ सूचक (शुभंकर) "श्री" तो हर व्यक्ति तथा देवी-देवता के नाम के पहले जुड़ता है, अतः उसको इसी रूप में रखने का निर्णय लिया गया। एक अतरिक्त एवं स्वतंत्र "श्र" अक्षर का निर्माण करके टाइपराइटर में इसे टाइप करने की व्यवस्था की गई।

तदनुसार ट्रेडल छापेखाने में शीशे के बने टाइप्स का निर्माण किया गया। लेटर प्रेस में कई संयुक्ताक्षरों के टाइप्स अलग से बनाए गए। प्राचीन संस्कृत पाठ को उसी रूप में छापने के लिए "श" के ऊपर से नीचे क्रम में बने संयुक्ताक्षरों के टाइप्स अलग से बनाए गए।

कम्प्यूटरों द्वारा हिन्दी में छपाई की तकनीकी के आविर्भाव के बाद दोनों रूपों में संयुक्ताक्षरों को प्रकट करने की सुविधा देने का प्रयास किया गया। 8बिट अमानकीकृत फोंट्स में येन-केन प्रकारेण अक्षरों के टुकड़ों को जोड़-जाड़ कर हिन्दी पाठ को प्रकट किया जाता है। इसी कारण वहाँ पाठ (text) की वर्णक्रमानुसार छँटाई (alphabetical sorting) तथा खोज (search) करना सम्भव नहीं हुआ, न ही इसकी कोई जरूरत होती थी।

युनिकोड-देवनागरी के प्रचलन के बाद पाठ का भण्डारण तथा कम्प्यूटर के आन्तरिक संसाधन के लिए सिर्फ युनिकोड कोड-नम्बरों की जरूरत होती है। पारम्परिक रूप में देवनागरी पाठ के प्रदर्शन(Display) तथा मुद्रण(printing) के लिए ओपेन टाइप फोंट्स का सहारा लिया जाता है। माइक्रोसॉफ्ट के डिफॉल्ट हिन्दी फोंट में श्च, श्न, श्र, श्ल तथा श्व रूप को डिफॉल्ट रूप में दर्शाने करने का प्रावधान अन्तःनिर्मित है। विशेषकर संस्कृत के पण्डित इसी रूप में प्रयोग करने प्राथमिकता देते हैं।

लेकिन कुछ हिन्दीभाषी लोग मैनुअल टाइपराइटर के अनुक्रम में श्‍च, श्‍न, श्‍ल और श्‍व के रूप में संयुक्ताक्षरों को Display और Print करना चाहते हैं।

अतः निम्न दोनों प्रकार के "श+” के संयुक्ताक्षर प्रयोग में हैं, जो परस्पर के वैकल्पिक रूप ही हैं। कोई अलग अक्षर नहीं।


वैकल्पिक रूप में अक्षरों को प्रकट करने के लिए युनिकोड में दो विशेष कोड की व्यवस्था की गई है।

ZWJ = Zero Width Joiner (U200D)

हलन्त के बाद इसका प्रयोग करके दो व्यञ्जन-वर्णों को सामान्यतया ऊपर-से-नीचे-क्रम (Top to down sequence) मिलकर संयुक्ताक्षर बनाने के बदले बायें-से-दायें-क्रम (Left to right sequence) में मिलकर संयुक्ताक्षर बनाने के लिए किया जाता है। इसे टाइप करने के लिए विण्डोज के Inscript कीबोर्ड-लेआऊट में टाइप करने के लिए Contol+Shift+1 कुञ्जियाँ एक साथ दबानी पड़ती है। उदारहण के लिए “श्व” लिखने के लिए जहाँ श+हलन्त+व तीन कुञ्जियाँ दबानी पड़ती है, वहीँ “श्‍व” वैकल्पिक रूप में लिखने के लिए श+हलन्त+ZWJ+व ये चार कुञ्जियाँ दबानी पड़ती है। “क्ष” को “क्‍ष” के वैकल्पिक रूप में टाइप करना है तो क+हलन्त+ ZWJ+ष ये चार कुञ्जियाँ दबानी होंगी।

ZWNJ = Zero Width Non-Joiner (U200C)

हलन्त के बाद इसका प्रयोग करके दो व्यञ्जन-वर्णों को सामान्यतया संयुक्ताक्षर बनने से रोकने या “नहीं जुड़ने" के लिए अर्थात् मूल रूप में प्रकट करने लिए किया जाता है। इसे विण्डोज के Inscript कीबोर्ड-लेआऊट में टाइप करने के लिए Contol+Shift+2 कुञ्जियाँ एक साथ दबानी पड़ती है। उदारहण के लिए “श्व” को “श्‌व” के वैकल्पिक रूप में टाइप करना है तो श+हलन्त+ZWNJ+व ये चार कुञ्जियाँ दबानी पड़ती है। “क्ष” को “क्‌ष” के वैकल्पिक रूप में टाइप करना है तो क+हलन्त+ ZWNJ+ष ये चार कुञ्जियाँ दबानी होंगी।


बरहा IME में ZWJ को टाइप करने के लिए ^ (SHIFT+6) का तथा ZWNJ के लिए ^^ (दो बार SHIFT+6) का प्रयोग करना पड़ता है।

अन्य हिन्दी IME में इसके लिए अन्य व्यवस्था होगी। यदि ZWJ (U200D) और ZWNJ (U200C) को टाइप करने के लिए उस IME में कोई व्यवस्था नहीं हो तो इसके लिए उनके निर्माता से सम्पर्क करें।

प्रश्न : मंगल फोंट में “शृंगार” शब्द में “शृ” ऐसे डिफॉल्ट रूप में क्यों प्रकट होता है। इसे वैकल्पिक पुराने रूप में कैसे प्रकट किया जाए?

उत्तर : माइक्रोसॉफ्ट के मंगल ओपेन टाइप फोंट में "शृ" के वैकल्पिक रूप वाला वर्णखण्ड (glyph) नहीं है। इसलिए यह इसी रूप में प्रकट होता है। आशा है इसके अगले वर्सन में माइक्रोसॉफ्ट जोड़े। सीडैक के CDAC-GISTSurekh फोंट में भी "शृ” ऐसा ही प्रकट होता है। जबकि उसी सीडैक के CDAC-GISTYogesh फोंट में "शृ” वैकल्पिक रूप में (देखें चित्र-2 में क्रम सं.16) प्रकट होता है।

चूँकि मंगल फोंट में डिफॉल्ट रूप में श्च, श्न, श्र, श्ल, श्व पुराने रूप में प्रकट होते हैं। अतः "शृ" को भी पुराने रूप में ही डिफॉल्ट रूप से प्रकट होना चाहिए। जबकि इसे पुराने रूप में प्रकट करने के लिए कोई वर्णखण्ड की व्यवस्था ही नहीं है।

कई लोग गलती से श्र और श्न को एक समझ लेते हैं। विशेषकर छोटे अक्षरों में दोनों एक जैसे दिखते हैं। लेकिन श्र = श+हलन्त+र होता है। जबकि श्न = श+हलन्त+न होता है।

कई लोग "शृंगार" शब्द में "शृ" को “श्रृ” के रूप में गलती से लिख देते हैं। जबकि “शृ” = श+ृ (ऋ की मात्रा) होता है। “श्रृ” = श+हलन्त+र+ृ (ऋ की मात्रा) होता है, जो कि पूर्णतया गलत है।

“श” का वैकल्पिक रूप चित्र-2 में क्रम सं.3 में दर्शाया गया है। ध्यान से देखें इसमें “र-कार” नहीं लगा है।

कुछ लोग "श” के वैकल्पिक रूप को गलती से आधा "श” मान बैठते हैं जबकि आधा “श्‍” तो “श” के वैकल्पिक रूप की खड़ी पाई को हटा देने से बनेगा। जो निम्नवत् रूप में होगा।

वैकल्पिक रूपों के कारण उपजनेवाली समस्याएँ :

देवनागरी वर्णों या संयुक्ताक्षरों के वैकल्पिक रूप में प्रकट होने के कारण कम्प्यूटिंग में अनेक तकनीकी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। विशेषकर Sorting और Searching में कई समस्याएँ आती हैं। उदाहरण के लिए मान लीजिए किसी शब्दकोश में एक स्थान पर “श्वेता” यों लिखा गया है दूसरे स्थान पर “श्‍वेता” यों लिखा गया है। तो alphabetical order में sorting करने पर दोनों अलग अलग स्थान पर प्रकट होंगे। उदारहण के लिए Google.co.in में इण्टरनेट में "श्वेताम्बर" शब्द से खोज की जाए तो केवल उन्हीं पृष्ठों की सूची प्रकट होगी जिन्होंने "श्व” के लिए "श+हलन्त+व” का प्रयोग किया है।

यदि Google.co.in में इण्टरनेट में "श्‍वेताम्बर" शब्द से खोज की जाए तो केवल उन्हीं पृष्ठों की सूची प्रकट होगी जिन्होंने "श्‍व” के लिए "श+हलन्त+ZWJ+व” का प्रयोग किया है। वे समस्त पृष्ठ गायब रहेंगे जिन्होंने “श्वेताम्बर” के रूप में प्रयोग किया है।

कई Search-engine ZWJ और ZWNJ कुञ्जियों को ignore करके दोनों रूपों में भण्डारित शब्दों वाले वेबपृष्ठों को संसूचित भी करते हैं।

लेकिन यह एक और समस्या बन जाती है कि वैकल्पिक रूपों को Sorting में एक स्थान पर कैसे रखा जाए? क्या ZWJ और ZWNJ कुञ्जियों को Sort-engine द्वारा ignore किया जाए? या इनके लिए कोई अलग अलगोरिद्म बनाया जाए?

अतः आवश्यकता है देवनागरी लिपि के ऐसे वैकल्पिक स्वरूपों वाले वर्णों का एक सर्वमान्य स्वरूप मानकीकृत किया जाए। इसमें विशेषकर कम्प्यूटर और इण्टरनेट तकनीकी की दृष्टि से सरल रूप को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। और सभी को उसे अन्तर्राष्ट्रीय एकरूपता के लिए सहर्ष अपनाना चाहिए।